वीरेन्द्र भाटिया
भारत में आर्थिक नीतियों को उदार बनाने का श्रेय 1991 के तत्कालीन वित्त मंत्री एवं वर्तमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिह को जाता है। विष्व की आर्थिक मंडी में जब साम्यवादी चीन भी गोता लगाने की तैयारी में था तो भला मिश्रित अर्थव्यवस्था वाला यह देष किस कदर पीछे रहता। भारत में उदार आर्थिक बाजार के 20 बरस पूरे हो गये है। और 20 बरस किसी भी निर्णय के मूल्यांकन के लिए कम समय नही होता। आज बीस बरसों बाद यदि आर्थिक नीतियों का या उदार बाजार का मूल्यांकन करें तो हम स्वय को कहां पाते है और आम आदमी इस पूरे खेल के केन्द्र में है या केन्द्र से बाहर है यह विवेचना हमें अब तो कम से कम कर ही लेनी चाहिए।
विवेचना हमे उन आपत्तियो की ही करनी चाहिए जो उदारीकरण के वक्त उठाई गई थी ताकि यह संज्ञान रहे कि आपत्तियां दूरदर्षी थी या नीतियां।
उस वक्त की पहली आपत्ति और तर्क था कि जब पूंजी को बाजार में खेलने के लिए छूट मिलती है तो वह संसाधनों का अनावष्यक दोहन करता है। देष के संसाधनों पर आम आदमी का उतना ही हक है जितना किसी खास का। और यदि उन संसाधनों से आम आदमी अपना पेट भर रहा है तो वे संसाधन आम आदमी के ही होने चाहिए लेकिन पूंजी अपने प्रभाव से उन संसाधनो को हथिया लेती है।
यदि हम पूरे देष की स्थिति पर नजर डालंे तो इस वक्त पंजी के खेल से आम आदमी बाहर हो रहा है। जहां जहां संसाधन है वहां वहां निजी कंपनियां अपना प्रभुत्व कायम कर रही है। नक्सलवाद की यदि जड को पहचानने की कोषिष करें तो संसाधनों पर पूंजी के कब्जे और आम आदमी के संघर्श की ही कहानी है यह नक्सलवाद। और यह संघर्श उन्ही राज्यों में है जहां साम्यवाद का कुछ असर है। अन्यत्र राज्यों में लोग अपनी जमीन पूंजीपतियों को बेच देते है। जमीदार वह राषि लेकर अन्यत्र जमीन ले लेता है, भूमिहीन अपने को ठगा सा देखता रहता है, सरकार जमीन के उंचे भाव देकर अपनी पीठ ठोकती रहती है, आम आदमी कहीं चर्चा, केन्द्र और निर्णय में नजर नही आता। स्टरलाईट के मालिक अनिल षर्मा जब यह कहते हैं कि जमीन के नीचे का सारा व्यापार हमारा है तो वह यह कह रहा होता है कि हमारे पास पूंजी का इतना अम्बार है कि देष में कही भी माईन या तेल या कोयला, खनिज मिलेगा उसे हम खरीद लेंगे। उडीसा में जब स्टरलाईट को खदान कार्य के लिए रोका जाता है तो वह अगले दिन सोनिया गांधी से मिलने पहुंच जाता है। पर्यावरण मंत्री जय राम रमेष को तब समझ में आता है कि पर्यावरण इस देष मे मुद्दा नही है। और स्टरलाईट खदान कार्य निरंतर जारी रखती है। पूंजी को खेलने के लिए जिन नियमों की जरूरत थी वह पिछले बीस बरसों में कही नजर नही आये और सरकारें पूंजी के आगे नतमस्तक होती रही।
आज पूंजी को बाजार में खेलने की खुली छूट दी गई उनमें एक आपत्ति दूसरे किस्म की है कि एक समय के बाद बाजार में पूंजी ही भाव तय करती है, सरकारें नही। आज यह आपत्ति अपने पूरे असर के साथ खडी है जब सरकार के प्रमुख लोग कहते है कि महंगार्इ्र उनके नियंत्रण में नही है। तेल के भाव भी जब बाजार तय करने लगेंगे जिसका सीधा सम्बन्ध महगाई से है, खाद्य वस्तुओं के टा्रंसपोर्टेषन से है तो महंगाई कैसे और क्यूं काबू आये यह समझा जा सकता है। तेल की कीमतों को बाजार के हवाले कर देने का मतलब है तेल कंपनियां अपने लाभ और हानि को खुद देखें। गोया कि तेल कंपनियों की बैलेंस षीट आम आदमी के जीवन से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गई है। और तेल कंपनियां तेल की कीमत निर्धारण में कितनी बेईमान है इसका हम सबको पता है। आज बाजार चीनी के दाम बढाता है, प्याज के दाम बढाता है, दाल, गेहूं और सब्जियों तक के दाम बढा देता है। विदेषी कंपनियां 700 रू क्विटल के हिसाब से गेहूं खरीद लेती है, भारत मे ही गेहू पडा रहता है, जब देष को जरूरत पडती है तो हमी को 1400 ये के हिसाब से बेच देते है। रिलांयस फ्रैष सेब के बाग से सेब, प्याज के खेत से प्याज सीधे उठाकर स्टोर कर लेता है और रिटेलर तक सीधा पहंुचता है तो कीमत तो मनमर्जी की ही वसूलेगा। पूंजी को खेलने का पूरा स्पेस दिया गया है, आम आदमी को चलने के लिए भी टोल टैक्स देना पडता है। प्याज स्टोर करने वालों को यह देष सबक सिखा सकता है यदि पूरा देष आदोलन में कूद पडे कि हम प्याज नही खाएंगे, आप स्टोर में रखिए लेकिन 50रू से जब 40 रू का भाव आता है तो हमें प्याज सस्ते लगने लगते है। पूंजी ऐसे ही बनाती और ऐसे ही बनती और बढती है।
विवेचना हमे उन आपत्तियो की ही करनी चाहिए जो उदारीकरण के वक्त उठाई गई थी ताकि यह संज्ञान रहे कि आपत्तियां दूरदर्षी थी या नीतियां।
उस वक्त की पहली आपत्ति और तर्क था कि जब पूंजी को बाजार में खेलने के लिए छूट मिलती है तो वह संसाधनों का अनावष्यक दोहन करता है। देष के संसाधनों पर आम आदमी का उतना ही हक है जितना किसी खास का। और यदि उन संसाधनों से आम आदमी अपना पेट भर रहा है तो वे संसाधन आम आदमी के ही होने चाहिए लेकिन पूंजी अपने प्रभाव से उन संसाधनो को हथिया लेती है।
यदि हम पूरे देष की स्थिति पर नजर डालंे तो इस वक्त पंजी के खेल से आम आदमी बाहर हो रहा है। जहां जहां संसाधन है वहां वहां निजी कंपनियां अपना प्रभुत्व कायम कर रही है। नक्सलवाद की यदि जड को पहचानने की कोषिष करें तो संसाधनों पर पूंजी के कब्जे और आम आदमी के संघर्श की ही कहानी है यह नक्सलवाद। और यह संघर्श उन्ही राज्यों में है जहां साम्यवाद का कुछ असर है। अन्यत्र राज्यों में लोग अपनी जमीन पूंजीपतियों को बेच देते है। जमीदार वह राषि लेकर अन्यत्र जमीन ले लेता है, भूमिहीन अपने को ठगा सा देखता रहता है, सरकार जमीन के उंचे भाव देकर अपनी पीठ ठोकती रहती है, आम आदमी कहीं चर्चा, केन्द्र और निर्णय में नजर नही आता। स्टरलाईट के मालिक अनिल षर्मा जब यह कहते हैं कि जमीन के नीचे का सारा व्यापार हमारा है तो वह यह कह रहा होता है कि हमारे पास पूंजी का इतना अम्बार है कि देष में कही भी माईन या तेल या कोयला, खनिज मिलेगा उसे हम खरीद लेंगे। उडीसा में जब स्टरलाईट को खदान कार्य के लिए रोका जाता है तो वह अगले दिन सोनिया गांधी से मिलने पहुंच जाता है। पर्यावरण मंत्री जय राम रमेष को तब समझ में आता है कि पर्यावरण इस देष मे मुद्दा नही है। और स्टरलाईट खदान कार्य निरंतर जारी रखती है। पूंजी को खेलने के लिए जिन नियमों की जरूरत थी वह पिछले बीस बरसों में कही नजर नही आये और सरकारें पूंजी के आगे नतमस्तक होती रही।
आज पूंजी को बाजार में खेलने की खुली छूट दी गई उनमें एक आपत्ति दूसरे किस्म की है कि एक समय के बाद बाजार में पूंजी ही भाव तय करती है, सरकारें नही। आज यह आपत्ति अपने पूरे असर के साथ खडी है जब सरकार के प्रमुख लोग कहते है कि महंगार्इ्र उनके नियंत्रण में नही है। तेल के भाव भी जब बाजार तय करने लगेंगे जिसका सीधा सम्बन्ध महगाई से है, खाद्य वस्तुओं के टा्रंसपोर्टेषन से है तो महंगाई कैसे और क्यूं काबू आये यह समझा जा सकता है। तेल की कीमतों को बाजार के हवाले कर देने का मतलब है तेल कंपनियां अपने लाभ और हानि को खुद देखें। गोया कि तेल कंपनियों की बैलेंस षीट आम आदमी के जीवन से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गई है। और तेल कंपनियां तेल की कीमत निर्धारण में कितनी बेईमान है इसका हम सबको पता है। आज बाजार चीनी के दाम बढाता है, प्याज के दाम बढाता है, दाल, गेहूं और सब्जियों तक के दाम बढा देता है। विदेषी कंपनियां 700 रू क्विटल के हिसाब से गेहूं खरीद लेती है, भारत मे ही गेहू पडा रहता है, जब देष को जरूरत पडती है तो हमी को 1400 ये के हिसाब से बेच देते है। रिलांयस फ्रैष सेब के बाग से सेब, प्याज के खेत से प्याज सीधे उठाकर स्टोर कर लेता है और रिटेलर तक सीधा पहंुचता है तो कीमत तो मनमर्जी की ही वसूलेगा। पूंजी को खेलने का पूरा स्पेस दिया गया है, आम आदमी को चलने के लिए भी टोल टैक्स देना पडता है। प्याज स्टोर करने वालों को यह देष सबक सिखा सकता है यदि पूरा देष आदोलन में कूद पडे कि हम प्याज नही खाएंगे, आप स्टोर में रखिए लेकिन 50रू से जब 40 रू का भाव आता है तो हमें प्याज सस्ते लगने लगते है। पूंजी ऐसे ही बनाती और ऐसे ही बनती और बढती है।
तीसरा तर्क जो उदारीकरण के वक्त दिया गया वह था सरकार की निजी पूंजी पर निर्भरता। बढते भ्रश्टाचार के चलते यह तो अच्छा था कि निजी सैक्टर निर्माण कार्य में जुटें। दिल्ली के पुल और मैट्रो इसका अच्छा उदाहरण है, लेकिन देष का सडक जैसे मुख्य काम से हाथ खींच लेना और निजी कंपनियों को इस षर्त पर टुकडे बांट देना कि 25 साल तक यहां से गुजरने वाले वाहन से टोल टैक्स काटते रहो और सडक का यह टुकडा तुम्हारा, बेहद निंदनीय कार्य है। सडक जैसे मूलभूत काम को भी जब पूंजी के हवाले कर दिया गया है तो आम आदमी की तो सडक भी नही रही। कही नैनो भी जुगाड करके ले लेगा तो घर में ही खडी रखेगा या षार्ट कट ढूढेगा कि कहां टोल टैक्स नही है। आंध्रा में मैट्रो का ठेका सत्यम के राजू के बेटे माईटास कंपनी के मालिक को इसी षर्त पर दिया गया था मैट्रो आप बनाओ और 25 साल तक उसकी कमाई आपकी। राजू ने सत्यम उस ठेके में गवां दी। यदि वह सत्यम और माईटास वह गेम सिरे चढ जाती तो हैदराबाद में प्रोपर्टी घोटाले का फिगर हमारे कैलकुलेटर से बाहर होता। लेकिन सरकार ने यह छूट दे दी थी और सरकार सत्यम के राजू के आगे नतमस्तक थी।
पूंजी के खेल का जो फायदा देष के आम आदमी को होना था वह था कंपनियां की आपसी प्रतियोगिता में उत्पाद का सस्ते में उपलब्ध होना। लेकिन पूंजी का खेल खेलने वाले इतने बेवकूफ कभी नहीं होते की गला काट प्रतियोगिता में उलझ कर अपनी ही पूंजी से खिलवाड करेंगे। इस खेल में सिर्फ टेलीकॉम कंपनियां कूदी और उसका फायदा गा्रहकों को जरूर मिला। हालांकि इलैक्ट्रिक वस्तुएं संस्ती हुई, कंप्यूटर सस्ते हुए लेकिन आम आदमी का इन सबसे नजदीक का कोई वास्ता नही था। आम आदमी को घर बनाना था तो जमीन सस्ती नही रही, लोहा, सीमेट सस्ते नही रहे, आम आदमी को खाना खाना था तो दाल तक उसकी जेब से बाहर हो गई। रोटी कपडा और मकान से वंचित होता आम आदमी इस आर्थिक रूप से सक्षम भारत का एक दूसरा चेहरा है जिस पर सरकार की नजर नही है। आंकडों में सरकार हमेषा बाजीगरी करती आई है और गरीबी रेखा से नीचे वालो की संख्या में असरदार कमी दिखा रही है, हो सकता है कुछ हद तक कही सच्चाई हो लेकिन उदार भारत में पूंजी ने आम आदमी को बाहर कर दिया है यह सच है और सबसे बडी हार और हानि इस देष की इस चीज की हुई है कि पंूजी ने उन लोगों को भी खरीद लिया है जो आम आदमी की आवाज उठाते थे। इसलिए देष में 60 रू प्रति लीटर तेल, 50 रू किलो प्याज, 80 रू किलो दाल बिक जाती है और कोई आंदोलन नजर नही आता।
सरकार का सरदार मनमोहन सिंह रहे या आडवानी, पूंजी के प्रभाव में सब बंधे है। सिर्फ रटे रटाये षब्द है जिन्हे हम उच्चार कर अपने अतस को षंात कर लेते है कि पूजी के आगमन से रोजगार पैदा होता है। जबकि सच्चाई यह है कि पूंजी वही आती है जहां संसाधन और श्रम मौजूद होता है। इस देष के कर्णधारों से हमें पूछना चाहिए कि हम पूंजी के आगे इतने असहाय क्यो हुए कि अपने संसाधनो और श्रम की सही कीमत ही नही वसूल पाये।
सरकार का सरदार मनमोहन सिंह रहे या आडवानी, पूंजी के प्रभाव में सब बंधे है। सिर्फ रटे रटाये षब्द है जिन्हे हम उच्चार कर अपने अतस को षंात कर लेते है कि पूजी के आगमन से रोजगार पैदा होता है। जबकि सच्चाई यह है कि पूंजी वही आती है जहां संसाधन और श्रम मौजूद होता है। इस देष के कर्णधारों से हमें पूछना चाहिए कि हम पूंजी के आगे इतने असहाय क्यो हुए कि अपने संसाधनो और श्रम की सही कीमत ही नही वसूल पाये।
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