जालंधर से अर्जुन शर्माहर रोज हम अखबारों में पुलिस की क्रूरता व कभी-कभी आपराधिक आचरण की खबरें पढ़ते हैं तो पुलिस को कोसते हैं. फिर चर्चा करते हैं कि देश का बहुत बुरा हाल है, नेता भ्रष्ट हैं, पुलिस अत्याचारी है, वगैरह-वगैरह. मेरी पक्की धारणा है कि कभी भी किसी ऐसी चर्चा में समस्याओं की तह तक हम कभी नहीं पहुंचते, क्योंकि 99 प्रतिशत लोगों को इन समस्याओं की जड़ों का ही ज्ञान नहीं है. यदि मैं कहूं कि हमारे पुलिस तंत्र का जो चेहरा-मोहरा दिखाई देता है, वैसा ही तो डिजाइन किया गया था तो शायद हैरान होने वालों की संख्या बहुत बड़ी होगी. पुलिस बल का गठन 1857 की क्रांति विफल होने के बाद अंग्रेज हुकूमत ने किया था. हुकूमत का इसके पीछे स्पष्ट उद्देश्य था कि हिंदुस्तान के निवासी गुलामों को दबा-डराकर, आतंकित-उत्पीडि़त कर अंग्रेजी सरकार के प्रति निष्ठावान रखा जाए. पुलिस इस काम में अंग्रेज का वो हथियार थी, जो हिंदुस्तानी होते हुए भी हिंदुस्तानियों को दबाकर रखने के काम आने वाली थी. इस मकसद की पूर्ति के लिए लॉर्ड मैकाले ने जो डिजाइन तैयार किया था, उसके लिए पुलिस बल की कुछ खूबियों को चिन्हित किया गया था. मसलन, पुलिस वाले परले दर्जे के बेरहम, मक्कार, भ्रष्ट, जुबान के कच्चे, धोखेबाज और कमीने हों. इसके लिए पुलिस एक्ट में पुलिस मुलाजिमों के लिए सुविधाओं के बजाय दुविधाओं का इंतजाम किया गया. मसलन चौबीस घंटे की ड्यूटी. जबकि वेतन आम सरकारी मुलाजिमों जितना, जो आठ घंटे काम करते हंै. इस प्रावधान के पीछे अंग्रेज की सोच थी कि पुलिस वाले हर दूसरे सरकारी मुलाजिम से इस भेदभाव के चलते गहरी नफरत की भावना मन में रखें. थाने से नाके तक आने-जाने के लिए किसी प्रकार के वाहन का पुलिस मैनुअल में प्रावधान न किए जाने के पीछे का मकसद था कि अपनी ड्यूटी पर पहुंचने के मकसद से पुलिसवाले आने-जाने वाले नागरिकों के गले में अंगूठा दें. नाके पर खाने के समय खाना न पहुंचाने के प्रावधान का मतलब था कि पुलिसवाले किसी ढ़ाबे-होटल वाले को जाकर वर्दी दिखाएं और मुफ्त में खाना खाएं. (आजादी के बाद गठित सीआरपी व बीएसएफ के कानून में ऐसा प्रावधान है कि जवानों को नाके पर छोडऩे व लेने सरकारी गाड़ी जाए और खाने के समय उन्हें नाकों पर खाना पहुंचाया जाए). उसके बाद पुलिसकर्मी चौबीस घंटे की ड्यूटी के दौरान कहां सोएंगे, कहां नहाएंगे, इन मामूली सुविधाओं का भी प्रावधान न किए जाने के पीछे यह मकसद था कि उनकी मानसिकता पशुओं जैसी हो जाए. इसके साथ एफआईआर दर्ज करके किसी को भी ठोक देने का अधिकार दे दिया गया, ताकि इन परिस्थितियों व मानसिकता के चलते वे जिस पर चाहें, जुल्म करें व पैसे ऐंठ लें. अंग्रेज को पता था कि इन लोगों की धक्केशाही का शिकार कमजोर व गुलाम भारतीय ही होंगे, जिसके चलते पुलिस वाले आम लोगों की नफरत के पात्र बनेंगे. इस प्रकार असीम ताकत देकर इस वर्ग को मनोवैज्ञानिक तौर पर भ्रष्ट किया गया. किसी विद्वान लेखक ने भी तो कहा है कि सत्ता भ्रष्ट करती है. पुलिस वालों को ट्रेनिंग के दौर में गालियां देने और अमानुषिक अंदाज में मारपीट करने के गुर सिखाए जाते थे. अंग्रेज ने किस हद तक भारत की कानून व्यवस्था में जनविरोधी कीलें ठोकी हैं, उसकी इससे बड़ी कोई उदाहरण नहीं कि जिन अंग्रेजों के अपने मुल्क की पुलिस अपराधी को भी सर कहकर पुकारती है, उन्हीं के बनाए भारतीय पुलिस तंत्र में पुलिस कब किसकी इज्जत उतार दे, इस मामले में कोई संदेह नहीं रहने दिया गया. यह भारत में ही कानून है कि किसी को भी गाड़ी के नीचे कुचलकर मार डालो, जमानत थाने में ही हो जाएगी. जबकि किसी के घर में उसकी इजाजत के बगैर घुसकर घूरकर देखने पर लगती धारा 452 में तीन महीने के कारावास के बाद ही जमानत मिलती है. इसके पीछे के कारण ये हैं कि जब ये कानून बनाए गए थे, तब तक मोटरगाड़ी केवल अंग्रेजों के पास ही हुआ करती थी. जबकि भारतीयों की बहुसंख्या से डरे अंग्रेजों को यही अंदेशा रहता था कि कहीं ये भीड़ के रूप में घर में घुसकर मार ही न डालें, इसीलिए 452 का प्रावधान हुआ. हर त्योहार पर रेड अलर्ट जारी करके पुलिस को सुरक्षा पर तैनात करके के पीछे भी यही मकसद था कि पुलिस वाले दिन-त्योहार के मौके पर भी कभी अपने परिवार से न मिल सकें, ताकि उनके मन में गैर सामाजिक प्राणी होने की कसक जिंदा रहे.
बहरहाल, इस विषय पर आगे बढ़ते हैं कि आजादी के बाद देश से गुलामी की जंजीर उतारने का दावा करने वाले नेता असली गुलामी की इन जंजीरों को उतारना भूल गए. उन्होंने नजरअंदाज कर दिया कि ये कायदे-कानून देश की गुलाम जनता को दबाकर रखने के लिए अंग्रेज ने बनाए थे, जिनके स्थान पर देश की आजाद परिस्थितियों में जनता को राहत देने वाले कायदे कानून का गठन करना चाहिए. सारा सिस्टम वैसे का वैसे ही रहने दिया गया. शायद सत्ताधारियों को समझ में आ गया था कि पुलिस के निर्माण में लाख विसंगतियां सही, पर पुलिस है तो सत्ताधारियों के हाथ का मजबूत हथियार. इसलिए इस विषय पर सभी राजनीतिक दलों में लगता है कि एक अलिखित व मूक समझौता है कि इस सिस्टम को वैसे ही रहने दो, जनता व्यक्ति बदलती रहे, व्यवस्था वही रहे. इन सबके बावजूद यदि कोई पुलिस अधिकारी जनहितैषी होने की कोशिश करता है तो वह नेताओं की आंख की किरकिरी बन जाता है. कुछ माह पहले अमृतसर के एसएसपी कुंवर विजय प्रताप सिंह के तबादले के लिए वहां का एक विधायक अनिल जोशी धरने पर बैठ गया. हैरानी की बात तो यह रही कि अमृतसर भाजपा के जिला प्रधान ने एसएसपी का तबादला न किए जाने को लेकर बाकायदा प्रेस कांफ्रेंस करके अपने विधायक की सोच को गलत करार दिया. अमृतसर के भाजपाई सांसद नवजोत सिंह सिद्धू ने एसएसपी की जनहितैषी नीतियों को समर्थन दिया. अमृतसर की विधायक व पंजाब की स्वास्थ्य मंत्री प्रो. लक्ष्मीकांता चावला ने भी इस तबादले की मांग का विरोध किया, पर बादल सरकार ने अंतत: एसएसपी का तबादला करके एक विधायक का ही कहा माना. चूंकि सिद्धू व प्रो. चावला साधारण राजनेता न होते हुए बुद्धिजीवी वर्ग के माने जाते हैं और उनकी सार्वजनिक छवि उज्ज्वल है, इसलिए साधारण राजनेता की सुनवाई हो गई. इस मामले में सरकार के रुख ने यह साफ कर दिया कि बुद्धिजीवी इसलिए सरकार में हैं कि सरकार की मजबूरी है पर जनहितैषी को सरकार बर्दाश्त नहीं कर सकती, चाहे वह एसएसपी हो या सांसद-मंत्री.
कुंवर विजय प्रताप सिंह से मैं तब मिला था, जब वे अमृतसर की केंद्रीय गुमटाला जेल में एसएसपी थे. उससे पहले अमृतसर किडनी कांड में उनकी बतौर एसपी निभाई गई भूमिका से हम परिचित थे. सुना था कि उन्होंने जेल में काफी सुधार किए थे. उनका ऑफर अप्रत्याशित व दूसरे पुलिस अधिकारियों से जुदा था. किसी पत्रकार को जेल देखने का न्यौता देने का हौसला हर अफसर नहीं कर सकता. जबकि कुंवर का ऑफर था कि बिना अप्वाइंटमेंट लिए किसी दिन भी आ धमको और जेल के बाहर से मोबाइल पर फोन कर लेना. हम बिना किसी सूचना के जेल में पहुंचे. उन्होंने हमारे साथ एक सब इंस्पेक्टर को भेजने से पहले बड़ी अजीब-सी हिदायत दी. उन्होंने कहा कि पत्रकारों की टीम को अपनी आंखों से जेल दिखाने की कोशिश मत करना. तुम केवल इसलिए साथ जा रहे हो, ताकि जिस स्थान को ये देखना चाहें, तुम उसका पता बता सको, बस. हमने सबसे पहले रसोई देखी. दाल फुल्के का खुद सेवन किया. नशा छुड़वाने वाला सैल देखा. कैद भुगत रहे पढ़े-लिखे लोगों को उन बैरकों में बाकायदा दूसरे कैदियों को पढ़ाते देखा, जिन बैरकों का इंतजाम खतरनाक आतंकवादियों को बंद रखने के लिए हुआ करता था. जेल के प्रांगण में कैदी योगा कर रहे थे. महिला बैरकों में किरण बेदी की संस्था विजन इंडिया की कार्यकर्ता महिला कैदियों को कई प्रकार के ट्रेनिंग कार्यक्रमों में व्यस्त रखे हुई थीं. जब सारी जेल देखकर वापस लौटे तो कुंवर का कहना था कि जो कमी देखी हो, उसे जरूर लिखना. हम सारे रास्ते में यही सोचते हुए आए कि क्या अफसर था. उनके साथ हुए इस सुलूक के बाद मेरी शुभकामनाएं कुछ ऐसी रहेंंगी-मित्र कुंवर जी, आप उजड़े ही रहो. जहां भी जाओगे, अपनी खुशबू फैलाओगे. बाबा नानक भी ऐसी ही शिक्षा देकर गए हैं.
बहरहाल, इस विषय पर आगे बढ़ते हैं कि आजादी के बाद देश से गुलामी की जंजीर उतारने का दावा करने वाले नेता असली गुलामी की इन जंजीरों को उतारना भूल गए. उन्होंने नजरअंदाज कर दिया कि ये कायदे-कानून देश की गुलाम जनता को दबाकर रखने के लिए अंग्रेज ने बनाए थे, जिनके स्थान पर देश की आजाद परिस्थितियों में जनता को राहत देने वाले कायदे कानून का गठन करना चाहिए. सारा सिस्टम वैसे का वैसे ही रहने दिया गया. शायद सत्ताधारियों को समझ में आ गया था कि पुलिस के निर्माण में लाख विसंगतियां सही, पर पुलिस है तो सत्ताधारियों के हाथ का मजबूत हथियार. इसलिए इस विषय पर सभी राजनीतिक दलों में लगता है कि एक अलिखित व मूक समझौता है कि इस सिस्टम को वैसे ही रहने दो, जनता व्यक्ति बदलती रहे, व्यवस्था वही रहे. इन सबके बावजूद यदि कोई पुलिस अधिकारी जनहितैषी होने की कोशिश करता है तो वह नेताओं की आंख की किरकिरी बन जाता है. कुछ माह पहले अमृतसर के एसएसपी कुंवर विजय प्रताप सिंह के तबादले के लिए वहां का एक विधायक अनिल जोशी धरने पर बैठ गया. हैरानी की बात तो यह रही कि अमृतसर भाजपा के जिला प्रधान ने एसएसपी का तबादला न किए जाने को लेकर बाकायदा प्रेस कांफ्रेंस करके अपने विधायक की सोच को गलत करार दिया. अमृतसर के भाजपाई सांसद नवजोत सिंह सिद्धू ने एसएसपी की जनहितैषी नीतियों को समर्थन दिया. अमृतसर की विधायक व पंजाब की स्वास्थ्य मंत्री प्रो. लक्ष्मीकांता चावला ने भी इस तबादले की मांग का विरोध किया, पर बादल सरकार ने अंतत: एसएसपी का तबादला करके एक विधायक का ही कहा माना. चूंकि सिद्धू व प्रो. चावला साधारण राजनेता न होते हुए बुद्धिजीवी वर्ग के माने जाते हैं और उनकी सार्वजनिक छवि उज्ज्वल है, इसलिए साधारण राजनेता की सुनवाई हो गई. इस मामले में सरकार के रुख ने यह साफ कर दिया कि बुद्धिजीवी इसलिए सरकार में हैं कि सरकार की मजबूरी है पर जनहितैषी को सरकार बर्दाश्त नहीं कर सकती, चाहे वह एसएसपी हो या सांसद-मंत्री.
कुंवर विजय प्रताप सिंह से मैं तब मिला था, जब वे अमृतसर की केंद्रीय गुमटाला जेल में एसएसपी थे. उससे पहले अमृतसर किडनी कांड में उनकी बतौर एसपी निभाई गई भूमिका से हम परिचित थे. सुना था कि उन्होंने जेल में काफी सुधार किए थे. उनका ऑफर अप्रत्याशित व दूसरे पुलिस अधिकारियों से जुदा था. किसी पत्रकार को जेल देखने का न्यौता देने का हौसला हर अफसर नहीं कर सकता. जबकि कुंवर का ऑफर था कि बिना अप्वाइंटमेंट लिए किसी दिन भी आ धमको और जेल के बाहर से मोबाइल पर फोन कर लेना. हम बिना किसी सूचना के जेल में पहुंचे. उन्होंने हमारे साथ एक सब इंस्पेक्टर को भेजने से पहले बड़ी अजीब-सी हिदायत दी. उन्होंने कहा कि पत्रकारों की टीम को अपनी आंखों से जेल दिखाने की कोशिश मत करना. तुम केवल इसलिए साथ जा रहे हो, ताकि जिस स्थान को ये देखना चाहें, तुम उसका पता बता सको, बस. हमने सबसे पहले रसोई देखी. दाल फुल्के का खुद सेवन किया. नशा छुड़वाने वाला सैल देखा. कैद भुगत रहे पढ़े-लिखे लोगों को उन बैरकों में बाकायदा दूसरे कैदियों को पढ़ाते देखा, जिन बैरकों का इंतजाम खतरनाक आतंकवादियों को बंद रखने के लिए हुआ करता था. जेल के प्रांगण में कैदी योगा कर रहे थे. महिला बैरकों में किरण बेदी की संस्था विजन इंडिया की कार्यकर्ता महिला कैदियों को कई प्रकार के ट्रेनिंग कार्यक्रमों में व्यस्त रखे हुई थीं. जब सारी जेल देखकर वापस लौटे तो कुंवर का कहना था कि जो कमी देखी हो, उसे जरूर लिखना. हम सारे रास्ते में यही सोचते हुए आए कि क्या अफसर था. उनके साथ हुए इस सुलूक के बाद मेरी शुभकामनाएं कुछ ऐसी रहेंंगी-मित्र कुंवर जी, आप उजड़े ही रहो. जहां भी जाओगे, अपनी खुशबू फैलाओगे. बाबा नानक भी ऐसी ही शिक्षा देकर गए हैं.
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