कैथल से डॉ. अरुणेश्वर झागतांक से आगे...यह हमारे देश में मौजूद शिक्षा प्रणाली का ही वीभत्स रूप है कि अपरिपक्व निर्णय अर्थोपार्जन के लिए हो रहे हैं. यदि भारतीय शिक्षा पद्धति को ही देश अपनाए रहता तो ऐसा कभी न होता. लॉर्ड मैकाले जीत गया और हमारी शासन सत्ता ने उसके आगे हार मान ली
ब्रिटिश शिक्षा पद्धति कहलाने वाली आधुनिक भारतीय शिक्षा पद्धति जो लॉर्ड मैकाले की सिफारिश पर भारतीय भविष्यों पर थोप दी गई थी, उसके प्रवत्र्तन हेतु कि वह थोपी हुई शिक्षा पद्धति भारतीयों के जहन में किस रूप में और कितने प्रतिशत अपनाई गई तथा पूर्णतया अपनाने के लिए क्या-क्या और जरूरत है प्रपंच करने की? साथ ही भारतीय अपनी पारंपरिक शिक्षा पद्धति को कितने अंश में छोड़ चुके हैं एवं कितने अंश को अपनाए हुए हैं, जिन्हें छुड़वाने के लिए और क्या-क्या प्रपंच करने की जरूरत है? इनको लेकर समय-समय पर आयोगों का गठन किया जाता रहा, जिसे लॉर्ड मैकाले के गुजर जाने के बाद लॉर्ड मैकाले के गद्दीनशीन हम कह सकते हैं।
भला वह कमीशन जो अंग्रेजी शासन के सुदृढ़ीकरण की दिशा में पैरवी करने हेतु दिशा निर्देश देने के लिए बनाए जाते रहे, आज स्वतंत्र भारत के 63 वर्ष आयु हो जाने के बाद भी उसी दिशा में ही हम आगे क्यों बढ़ रहे हैं. आखिर कब तक? कब हम अपनी ओर मुड़ेंगे. आजादी के बाद भी अनेक शिक्षा आयोगों का गठन किया गया. लेकिन हम अपने विश्वगुरूता की ओर वापस मुडऩे को तैयार नहीं हो पाए. फिर भी वर्तमान भारतीय शासन सत्ता से कोसों दूर यहां के वर्तमान आध्यात्मिक पुरुषों (विवेकानंद, अरविंद, महेश योगी, रजनीश ओशो, चिन्मयानंद, रविशंकर, रामदेव, बालकृष्ण, प्रभृति) ने प्राच्य भारतीय शिक्षा पद्धति के अनुरूप एक-एक विषय को लेकर विश्व को स्मरण दिलाया कि भारत विश्वगुरू था, है और रहेगा. दुनिया की तमाम समस्याओं का समाधान प्राच्य भारतीय शिक्षा पद्धति के सैद्धांतिक व आध्यात्मिक एवं व्यवहारिक इन तीनों ही पक्षों में एकल रूप में विद्यमान है. फिर भी यहां का शासन व सत्ता इनके विपरीत अग्रसर हैं.
परिणाम बद से बदतर होता जा रहा है. प्रकृति ने हमें विश्व में सर्वाधिक समृद्धियां प्रदान की हैं, जिन पर तमाम विदेशियों की गिद्धदृष्टि के परिणामस्वरूप हम अपना सर्वस्व लुटाते रहे हैं. आज भी हमारे प्राकृतिक संसाधन हमें समृद्ध करने हेतु आंचल फैलाए बैठे हैं लेकिन अब हम भी उनके दोहन को भूलकर उनका शोषण करने लगे हैं. परिणाम भयंकर होता जा रहा है. नई पीढ़ी दिशाविहीन होती चली जा रही है. ब्रिटिश पद्धति की शिक्षा का प्रभाव उन पर हावी होने के चलते विवेकहीनतापूर्वक आचरण करना उनका आदर्श बनता जा रहा है. आधुनिक विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की अंधी दौड़ में वे मशीन बनते जा रहे हैं. उनमें संवेदनाएं समाप्त हो रही हैं. उनमें अवस्थागत ऊर्जाएं हैं, उनका उपयोग न करके वे दुरूपयोग करने में ही अपनी बहादुरी मानने लगे हैं. शासन सत्ता में बैठे कुछ लोग यदि इससे आसन्न संकट को देख भी रहे हैं तो अधिकतर उनके साथी इनसे बेखबर हैं. वे अपने विवेकी-भविष्यद्रष्टा ज्येष्ठजनों से मार्गदर्शन लेने की जरूरत नहीं महसूस करते. और अपनी मस्ती में आर्थिक लालच की अंधियारी गली में भटक रहे हैं. चाहे 2जी स्पेक्ट्रम हो, बोफोर्स तोप सौदे, यूरिया, चीनी, चारा से संबंधित विवाद हो या आदर्श भवन की बातें क्यों न हों. ये सभी विवादित घोटाले संबंधित व्यक्ति की संवेदनहीनता की ओर ही तो इशारा करते हैं.
उपरोक्त विवादास्पदों में मुंबई के आदर्श भवन जो वर्षों की मशक्कत से हजारों करोड़ की लागत से 31 मंजिला भवन के रूप में बनकर तैयार हुआ. कारगिल युद्ध में शहीद हुए देश के रणबांकुरों के आश्रितों को सांत्वना देने के रूप में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अपनी विवेकशीलता का परिचय देते हुए जिस आदर्श भवन का स्वपन देखा था, जिसके निर्माण हेतु पर्याप्त धनराशि की व्यवस्था की लेकिन केंद्रीय सत्ता परिवर्तन होते ही उनके सपनों पर ग्रहण लगा दिया गया. भवन बनकर तैयार हुए. बंटवारे की बारी आई, तो इसे पात्र व्यक्ति को अपात्र बनाकर कुपात्रों को परोस दिया गया. गड़बड़झाले का पर्दाफाश हुआ तो आसन्न अभियुक्तों ने अपना-अपना पल्ला झाड़ दिया. समाधान करने की बजाय कभी भवन निर्माण संबंधी कागजात गायब करवाने में तो कभी निर्माण को अवैध करार देने में ही उन्होंने अपना बचाव ढूंढऩा शुरू किया.
हद तो तब हो गई जब संपूर्ण शासन तंत्र, राजनेताओं, सैनिक अधिकारियों, नौकरशाहों की लूट का मामला सामने आया तो सबको बचाने का एक और विवेकहीन निर्णय पर्यावरण मंत्रालय की ओर से दिलवाया गया कि उक्त भवन को नष्ट कर दिया जाए. क्योंकि दिल्ली के लक्ष्मीनगर क्षेत्र में बने सात मंजिला भवन के गिरने से 70 लोगों की जान चली गई थी. उसी घटना की आड़ लेकर आदर्श भवन को गिराने के लिए क्लीन चिट दे दी गई. जब वर्षों से सरकार की ओर से उनके ही दिशा निर्देशन में ठेकेदार बिल्डर उसे बना रहे थे, जहां कदम-कदम पर शासन-सत्ता की मंजूरी अपेक्षित थी, फिर भी पर्यावरण मंत्रालय क्यों अनभिज्ञ रहा उक्त भवन निर्माण से. यह कैसी विडंबना है? जिस देश में आज कुछ व्यक्ति इस सभ्य समाज के बीच लाचार होकर आर्थिक तंगी में अपनी नन्ही-मुन्नी बेटियों के साथ सिर छिपाने के लिए आबादी से सुदूर जंगलों में बने शमशान के छप्पर के नीचे आशियाना बनाकर रहने को विवश हैं, वहां जलती चिताओं के समीप डरे सहमे बच्चे अपनी रात काटने को मजबूर हों. जहां दिन में कभी कभार लोग आकर अपने मृत जन के शवदाह करके चले जाते हों, वहां सभ्य समाज का एक निर्धन एवं राष्ट्रीय मुख्यधारा में चलने वाला व्यक्ति, जो दिनभर रिक्शा चलाकर दो जून की रोटी का जुगाड़ कर पाता है, अपनी बेटियों को पढ़ा-लिखाकर देश सेवा में समर्पित करने का सपना देख रहा है.
कहने का मतलब, भला उस देश के नागरिकों की गाढ़ी कमाई के हजारों करोड़ रुपए की लागत से बने आदर्श भवन को महज कुछ बेईमान एवं भ्रष्टाचारियों की खाल बचाने की खातिर पर्यावरण मंत्रालय ने आनन-फानन में गिरा देने के आदेश दे दिए. यह सब क्या है? अपरिपक्व एवं अधूरी शिक्षा के परिणाम ही तो इसमें झलक रहे हैं. शासन सत्ता के उच्च पदस्थ लोगों को कैसी शिक्षा मिली थी कि उन्होंने इन तमाम गड़बड़झालों को अंजाम देकर महाविनाश तक पहुंचा दिया.
ब्रिटिश शिक्षा पद्धति कहलाने वाली आधुनिक भारतीय शिक्षा पद्धति जो लॉर्ड मैकाले की सिफारिश पर भारतीय भविष्यों पर थोप दी गई थी, उसके प्रवत्र्तन हेतु कि वह थोपी हुई शिक्षा पद्धति भारतीयों के जहन में किस रूप में और कितने प्रतिशत अपनाई गई तथा पूर्णतया अपनाने के लिए क्या-क्या और जरूरत है प्रपंच करने की? साथ ही भारतीय अपनी पारंपरिक शिक्षा पद्धति को कितने अंश में छोड़ चुके हैं एवं कितने अंश को अपनाए हुए हैं, जिन्हें छुड़वाने के लिए और क्या-क्या प्रपंच करने की जरूरत है? इनको लेकर समय-समय पर आयोगों का गठन किया जाता रहा, जिसे लॉर्ड मैकाले के गुजर जाने के बाद लॉर्ड मैकाले के गद्दीनशीन हम कह सकते हैं।
भला वह कमीशन जो अंग्रेजी शासन के सुदृढ़ीकरण की दिशा में पैरवी करने हेतु दिशा निर्देश देने के लिए बनाए जाते रहे, आज स्वतंत्र भारत के 63 वर्ष आयु हो जाने के बाद भी उसी दिशा में ही हम आगे क्यों बढ़ रहे हैं. आखिर कब तक? कब हम अपनी ओर मुड़ेंगे. आजादी के बाद भी अनेक शिक्षा आयोगों का गठन किया गया. लेकिन हम अपने विश्वगुरूता की ओर वापस मुडऩे को तैयार नहीं हो पाए. फिर भी वर्तमान भारतीय शासन सत्ता से कोसों दूर यहां के वर्तमान आध्यात्मिक पुरुषों (विवेकानंद, अरविंद, महेश योगी, रजनीश ओशो, चिन्मयानंद, रविशंकर, रामदेव, बालकृष्ण, प्रभृति) ने प्राच्य भारतीय शिक्षा पद्धति के अनुरूप एक-एक विषय को लेकर विश्व को स्मरण दिलाया कि भारत विश्वगुरू था, है और रहेगा. दुनिया की तमाम समस्याओं का समाधान प्राच्य भारतीय शिक्षा पद्धति के सैद्धांतिक व आध्यात्मिक एवं व्यवहारिक इन तीनों ही पक्षों में एकल रूप में विद्यमान है. फिर भी यहां का शासन व सत्ता इनके विपरीत अग्रसर हैं.
परिणाम बद से बदतर होता जा रहा है. प्रकृति ने हमें विश्व में सर्वाधिक समृद्धियां प्रदान की हैं, जिन पर तमाम विदेशियों की गिद्धदृष्टि के परिणामस्वरूप हम अपना सर्वस्व लुटाते रहे हैं. आज भी हमारे प्राकृतिक संसाधन हमें समृद्ध करने हेतु आंचल फैलाए बैठे हैं लेकिन अब हम भी उनके दोहन को भूलकर उनका शोषण करने लगे हैं. परिणाम भयंकर होता जा रहा है. नई पीढ़ी दिशाविहीन होती चली जा रही है. ब्रिटिश पद्धति की शिक्षा का प्रभाव उन पर हावी होने के चलते विवेकहीनतापूर्वक आचरण करना उनका आदर्श बनता जा रहा है. आधुनिक विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की अंधी दौड़ में वे मशीन बनते जा रहे हैं. उनमें संवेदनाएं समाप्त हो रही हैं. उनमें अवस्थागत ऊर्जाएं हैं, उनका उपयोग न करके वे दुरूपयोग करने में ही अपनी बहादुरी मानने लगे हैं. शासन सत्ता में बैठे कुछ लोग यदि इससे आसन्न संकट को देख भी रहे हैं तो अधिकतर उनके साथी इनसे बेखबर हैं. वे अपने विवेकी-भविष्यद्रष्टा ज्येष्ठजनों से मार्गदर्शन लेने की जरूरत नहीं महसूस करते. और अपनी मस्ती में आर्थिक लालच की अंधियारी गली में भटक रहे हैं. चाहे 2जी स्पेक्ट्रम हो, बोफोर्स तोप सौदे, यूरिया, चीनी, चारा से संबंधित विवाद हो या आदर्श भवन की बातें क्यों न हों. ये सभी विवादित घोटाले संबंधित व्यक्ति की संवेदनहीनता की ओर ही तो इशारा करते हैं.
उपरोक्त विवादास्पदों में मुंबई के आदर्श भवन जो वर्षों की मशक्कत से हजारों करोड़ की लागत से 31 मंजिला भवन के रूप में बनकर तैयार हुआ. कारगिल युद्ध में शहीद हुए देश के रणबांकुरों के आश्रितों को सांत्वना देने के रूप में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अपनी विवेकशीलता का परिचय देते हुए जिस आदर्श भवन का स्वपन देखा था, जिसके निर्माण हेतु पर्याप्त धनराशि की व्यवस्था की लेकिन केंद्रीय सत्ता परिवर्तन होते ही उनके सपनों पर ग्रहण लगा दिया गया. भवन बनकर तैयार हुए. बंटवारे की बारी आई, तो इसे पात्र व्यक्ति को अपात्र बनाकर कुपात्रों को परोस दिया गया. गड़बड़झाले का पर्दाफाश हुआ तो आसन्न अभियुक्तों ने अपना-अपना पल्ला झाड़ दिया. समाधान करने की बजाय कभी भवन निर्माण संबंधी कागजात गायब करवाने में तो कभी निर्माण को अवैध करार देने में ही उन्होंने अपना बचाव ढूंढऩा शुरू किया.
हद तो तब हो गई जब संपूर्ण शासन तंत्र, राजनेताओं, सैनिक अधिकारियों, नौकरशाहों की लूट का मामला सामने आया तो सबको बचाने का एक और विवेकहीन निर्णय पर्यावरण मंत्रालय की ओर से दिलवाया गया कि उक्त भवन को नष्ट कर दिया जाए. क्योंकि दिल्ली के लक्ष्मीनगर क्षेत्र में बने सात मंजिला भवन के गिरने से 70 लोगों की जान चली गई थी. उसी घटना की आड़ लेकर आदर्श भवन को गिराने के लिए क्लीन चिट दे दी गई. जब वर्षों से सरकार की ओर से उनके ही दिशा निर्देशन में ठेकेदार बिल्डर उसे बना रहे थे, जहां कदम-कदम पर शासन-सत्ता की मंजूरी अपेक्षित थी, फिर भी पर्यावरण मंत्रालय क्यों अनभिज्ञ रहा उक्त भवन निर्माण से. यह कैसी विडंबना है? जिस देश में आज कुछ व्यक्ति इस सभ्य समाज के बीच लाचार होकर आर्थिक तंगी में अपनी नन्ही-मुन्नी बेटियों के साथ सिर छिपाने के लिए आबादी से सुदूर जंगलों में बने शमशान के छप्पर के नीचे आशियाना बनाकर रहने को विवश हैं, वहां जलती चिताओं के समीप डरे सहमे बच्चे अपनी रात काटने को मजबूर हों. जहां दिन में कभी कभार लोग आकर अपने मृत जन के शवदाह करके चले जाते हों, वहां सभ्य समाज का एक निर्धन एवं राष्ट्रीय मुख्यधारा में चलने वाला व्यक्ति, जो दिनभर रिक्शा चलाकर दो जून की रोटी का जुगाड़ कर पाता है, अपनी बेटियों को पढ़ा-लिखाकर देश सेवा में समर्पित करने का सपना देख रहा है.
कहने का मतलब, भला उस देश के नागरिकों की गाढ़ी कमाई के हजारों करोड़ रुपए की लागत से बने आदर्श भवन को महज कुछ बेईमान एवं भ्रष्टाचारियों की खाल बचाने की खातिर पर्यावरण मंत्रालय ने आनन-फानन में गिरा देने के आदेश दे दिए. यह सब क्या है? अपरिपक्व एवं अधूरी शिक्षा के परिणाम ही तो इसमें झलक रहे हैं. शासन सत्ता के उच्च पदस्थ लोगों को कैसी शिक्षा मिली थी कि उन्होंने इन तमाम गड़बड़झालों को अंजाम देकर महाविनाश तक पहुंचा दिया.
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