सुखबिंदर कौलधार
शिखर पर पहुंच कर, दिव्य नर से एकरूप होकर, उनके साथ संवाद करके जब सारे ब्राहमण्ड, सभी खण्डों और भवनों के कुल लुप्त भेदों को जान लिया था, तभी सतगुरु रविदास जी ने इस अदवैतवाद के सिद्धांत को स्वीकार किया था। क्योंकि यह सिद्धांत को स्वीकार किया था। क्योंकि यह सिद्धांत सत्य पर आधारित था और उनकी विचारधारा से मिलता था और मानवता को एक धागे में पिरोने वाला सिद्धांत था। तभी तो गुरु जी ने फरमाया था,-एक ही एक, अनेक होये विसथरिओं, (राग मुल्हार पन्ना 68, अमृतवाणी)। भाव ईश्वर एक है। एक ही ईश्वर अनेक रूप धारण करके सभी प्राणीयों में समान रूप से बस रहा है। सतगुरु रविदास जी एक अन्य शब्द में लोकाई को ज्ञान प्रदान करते हैं-सरब एक अनेकै स्वामी सब घट भोगवे सोई। (अमृतवाणी पन्ना 15)। इस का अर्थ यही है कि एक प्रमात्मा ही सभी जीवों में अनेक रूप धारण करके बस रहा है। सभी दिलों में वह स्वयं ही बैठा आनंद महसूस कर रहा है। सभी प्राणीयों में वही सर्व-शक्तिमान प्रमात्मा स्वयं ही विद्यमान है। इस तरह गुरु रविदास जी ने इन्सान और भगवान में सीधा सम्बंध जोड़ दिया है। गुरु रविदास जी ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया है कि जब वह सृजनहारा ही सब प्राकिृति में घटित हो रहा है तो फिर इन्सानों में भेदभाव और आपसी असपर्शता कैसी ? वर्ण-व्यवस्था और जाति-पाति के भेदभाव क्यों हैं ? इस प्रकार गुरु रविदास जी प्रमात्मा और प्राणीयों के बीच सीधा रिश्ता जोड़ देते हैं। कोई मनुष्य हो या ऋषि-मुनि हो, यदि वह भगवान के बनाये मनुष्यों से घृणा या नफरत या असपर्शता करता है तो वह अपने रचयिता प्रभु-प्रीतम के साथ घृणा करने का दोषी है। सर्व-लोकाई को गुरु रविदास जी ने इस प्रकार आसान शब्दों में उपदेश द्वारा ज्ञान प्रदान किया है। इसी कारण गुरु जी ने उन रचनाओं के निर्मातायों को एक चुनौती भी दे दी है कि जिन लोगों को तुम्हारी रचनाऐं झूठ पर आधारित नीच या दबी कुतली श्रेणी ब्यान कर रही हैं, वास्तव में तुम्हारे और उन सभी में एक ही भगवान बस रहा है। यह कैसी विडंम्बना है कि तुम जिस ईश्वर की पूजा करते हो उसी को नीच बता रहे हो। जब रचायता ही सभी प्राणियों में बस रहा हो तो फिर वर्ण-व्यवस्था और जाति-पाति कैसी ? इन क्रांतिकारी विचारों ने भक्ति आंदोलन को नई दिशा और नए अर्थ प्रदान किए थे क्योंकि भक्ति आंदोलन से सम्बंधित मुख्य संत काल्पनिक नीच समझी गई श्रेणीयों से संबंध रखते थे, जिन से शक्तिशाली समाज ने प्रभु-भक्ति के साथ-साथ मौलिक अधिकार भी छीन लिए थे। उत्पीडिऩ और उपेक्षा का शिकार हुई लोकाई के लिए ऐसा क्रांतिकारी सिद्धांत जीवन का नया स्रोत बन गया था। जिस का इंतजार वह मजबूर वर्ग सदियों से कर रहा था। गुरु रविदास जी के काल में भारत में भक्ति की दो मुख्य विचारत्मक नदियां बहती थीं। पहली नदी सदगुणवादी धारा की और दूसरी नदी थी निरगुणवादी भक्ति की। सतगुरु रविदास जी दूसरी महत्वपूर्ण धारा के मुख्य संत-कवि, गुरु थे। इसी कारण उन्होंने अपने ईष्ट-प्रभु को अनेक नामों से पुकारा और याद किया है। अमृतवाणी सतगुरु रविदास जी का गहन अध्ययन करते हुए यह बात स्पष्ट होती है। गुरु जी ने अपने माधव के लिए हरि, निरंजन, ओंकार, कर्तापुरख, सर्वव्यापक, सर्व शक्तिमान, अंतरयामी, अनंता, परमानंद, गोविंद, बाजीगर, रमयिया, पतितपावन, मोरारी, राम, कृष्ण, नाथ, सतिनाम, रघुनाथ भगवंत, मुकंद, नारायण, लाल, गरीब-निवाज, कंवलासपति, ठाकुर, चंदन, देवादेव, ओंकार, ईषस राधो, रहीम, करीम, खदाए, प्रीतम, ब्रहम आदि नामों का उपयोग किया है। यह इस बात का प्रतीक है कि प्रभु को संसार चाहे किसी भी नाम से याद क्यों न करें, परन्तु वह सभी सम्बोधन उसी एक ही परमात्मा के हैं, जिसने इस ब्रांहमण्ड और प्राकृति की रचना की है। भाव परमात्मा एक है, पुरातन रिगवेद में सूर्य, जल, अग्नि, वायु आदि को देवता समझ कर उनकी पूजा होती रही है। इनका परम देवता इन्द्र समेत कुल सृष्टि, कुल संसार का नहीं ब्लकि तीनों लोकों का, कुल ब्राहमंड का रचनहारा है और समूह देवी-देवताओं का रचयिता और कुल शक्तियों से सम्पन्न सर्व-श्रेष्ठ बड़ा देवता है। तभी तो गुरु जी उस ईश्वर को, देवा-देव, भाव देवताओं का देवता पुकार कर याद करते हैं। वेदों में व्यक्त शक्तियां उसी नायक के एक ईशारे से उपजी हुई हैं और उसी के आदेशानुसार चलती हैं। सभी वस्तुओं में वह सर्व-शक्तिमान स्वयं मौजूदा हो कर परमानंद प्राप्त कर रहा है। सतगुरु रविदास जी महाराज तो सम्पूर्ण वास्तविकता से भली-भांत ज्ञाता थे, क्योंकि गुरु रविदास जी परमात्मा से ज्योति स्वरूप विलीन थे, इक-मिक थे। तभी तो अपनी मधुर वाणी में कहते हैं-मिलत प्यारो प्राण नाथ कवन भगती ते? इस शब्द में गुरु रविदास जी मुख्य रूप से अपने श्वासों के स्वामी को प्राण नाथ कहते हैं। भाव रचयिता परमाला है और सृष्टि उसी प्रमात्मा का अंश है। उस प्रभु की रचना में प्रमात्मा का अंश आत्मा बनकर या श्वास बनकर वास कर रहा है। अपनी अमृतवाणी में सतगुरु रविदास जी कहते हैं कि उनके जीवन का तन-मन का श्वासों का, प्राणों का, धन सम्पित का स्वामी तो बस निरंकार-प्रभु या प्राणों का नाथ स्वयं ही है। सतगुरु रविदास जी बहुत सी बाणी अभी तक लुप्त है जिसकी खोज जारी है, परन्तु जो वाणी अब तक उपलब्ध हो सकी है उस वाणी के श्लोकों में गुरु रविदास जी ने अदवैतवाद का चिंतन बड़े कुशल ढंग से प्रस्तुत किया है। गुरु जी की अमृतवाणी के पन्ना 155 पर अंकित है। ऐकै माटी के भांडे ऐको सृजनहारा, रविदास व्यापै ऐको घट भीतर ऐक घड़े कुमाहारा। गुरु जी का कथन है कि प्रमात्मा ने अनेकों प्रकार के भिन्न-भिन्न तरह के व्यक्ति एक ही मिट्टी से निर्मित किये हैं। उपने बनाये सभी जीवों में वह प्रभु स्वयं ह व्यापक है। सब जीवों को रचने वाला वह प्रभु प्राणीयों में निवास कर रहा है तभी तो इस सृष्टि के सभी जीव समान हैं, उनमें किसी प्रकार का कोई भिन्न-भेद नहीं है।
एक जोति ते जऊ उपजै तऊ ऊँच नीच किस मान। रविदास नाम कत धरै कह को नाद बिंद है समान। (अमृतवाणी पन्ना 155)। गुरु जी कहते हैं कि जब सभी मनुष्य प्रमात्मा की एक दिव्य जोति से उपजे हुए हैं तो फिर उन मनुष्यों के बीच अंतर कैसा रह जाता है। सभी जीवों में वह दिव्य ज्योति समान रूप से निवास कर रही है, फिर कुछ नीच और अन्य उच्च कैसे हो गए ? यह सब मानवता विरोधी शक्तियों का कुकर्म है जो अपने स्वार्थ के लिए मानवता के बीच फूट डाल रही हैं। गुरु जी की मनोहर अमृतवाणी में अत्यन्त ऐसी उदाहरणें दी जा सकती हैं। सतगुरु रविदास जी ने इस मानवतावादी सिद्धांत को अपनी वाणी द्वारा अति सुंदर ढंग से अनुकूल मिसालें देकर समूह लोकाई को समझाया है कि प्रमात्मा एक है और सम्मपूर्ण ब्राहमण्ड, सभी खण्ड, कुल सृष्टि उसी एक सृजनहारा की रचना है। इसी कारण सभी जीव समान हैं। रविदास ऐक ब्रहम बूंद सों सगल पसारा जान। सब उपजयो इक बूंद सों सब ही एक समान। (अमृतवाणी पन्ना 274)। ऐसा प्रतीत होता है जैसे सतगुरु रविदास जी ने इस अदवैदतवाद के चिंतन की पूर्ण तर्क-विर्तक के साथ पड़ताल की थी। यह मानवतावादी सिद्धांत प्राचीन चिंतन वाले ऋषि-मुनियों को रास नहीं आ रहा था क्योंकि इस चिंतन का मुख्य उद्देश्य वर्ण-प्रणाली को ठेस लगाना था या उसे टक्कर देना था, जिसे अपनाना उनके वश की बात नहीं थी। इसी कारण इस सिद्धांत को भक्ति आंदोलन के संतों ने दिल से पूरे तन-मन से अपनाया था। गुरु रविदास जी के संकल्प और उद्देश्यों के साथ भी यह विचारधारा मिलती-जुलती थी। इस कारण गुरु जी के विचारों को प्रकट करने के लिए यह सिद्धांत महत्तवपूर्ण सहायक सिद्ध हुआ था। इसका मुख्य कारण यह था कि यह सिद्धांत वर्ण और श्रेणी-रहित नये समाज का निर्माण करने के लिए अध्यात्मिक चिंतन पर आधारित एक नया संकल्प प्रदान करने के समक्ष था और उसकी यह योग्यता और श्रष्ठता आज भी कायम है। अदवैदतवाद, वर्ण-व्यवस्था की जंजीरों को तोड़ कर बेगमपुरा और समाजवाद के सुनहरी नियमों के आधार पर नव समाज की सृजना में महत्तवपूर्ण भूमिका निभाने में सक्षम है।
एक जोति ते जऊ उपजै तऊ ऊँच नीच किस मान। रविदास नाम कत धरै कह को नाद बिंद है समान। (अमृतवाणी पन्ना 155)। गुरु जी कहते हैं कि जब सभी मनुष्य प्रमात्मा की एक दिव्य जोति से उपजे हुए हैं तो फिर उन मनुष्यों के बीच अंतर कैसा रह जाता है। सभी जीवों में वह दिव्य ज्योति समान रूप से निवास कर रही है, फिर कुछ नीच और अन्य उच्च कैसे हो गए ? यह सब मानवता विरोधी शक्तियों का कुकर्म है जो अपने स्वार्थ के लिए मानवता के बीच फूट डाल रही हैं। गुरु जी की मनोहर अमृतवाणी में अत्यन्त ऐसी उदाहरणें दी जा सकती हैं। सतगुरु रविदास जी ने इस मानवतावादी सिद्धांत को अपनी वाणी द्वारा अति सुंदर ढंग से अनुकूल मिसालें देकर समूह लोकाई को समझाया है कि प्रमात्मा एक है और सम्मपूर्ण ब्राहमण्ड, सभी खण्ड, कुल सृष्टि उसी एक सृजनहारा की रचना है। इसी कारण सभी जीव समान हैं। रविदास ऐक ब्रहम बूंद सों सगल पसारा जान। सब उपजयो इक बूंद सों सब ही एक समान। (अमृतवाणी पन्ना 274)। ऐसा प्रतीत होता है जैसे सतगुरु रविदास जी ने इस अदवैदतवाद के चिंतन की पूर्ण तर्क-विर्तक के साथ पड़ताल की थी। यह मानवतावादी सिद्धांत प्राचीन चिंतन वाले ऋषि-मुनियों को रास नहीं आ रहा था क्योंकि इस चिंतन का मुख्य उद्देश्य वर्ण-प्रणाली को ठेस लगाना था या उसे टक्कर देना था, जिसे अपनाना उनके वश की बात नहीं थी। इसी कारण इस सिद्धांत को भक्ति आंदोलन के संतों ने दिल से पूरे तन-मन से अपनाया था। गुरु रविदास जी के संकल्प और उद्देश्यों के साथ भी यह विचारधारा मिलती-जुलती थी। इस कारण गुरु जी के विचारों को प्रकट करने के लिए यह सिद्धांत महत्तवपूर्ण सहायक सिद्ध हुआ था। इसका मुख्य कारण यह था कि यह सिद्धांत वर्ण और श्रेणी-रहित नये समाज का निर्माण करने के लिए अध्यात्मिक चिंतन पर आधारित एक नया संकल्प प्रदान करने के समक्ष था और उसकी यह योग्यता और श्रष्ठता आज भी कायम है। अदवैदतवाद, वर्ण-व्यवस्था की जंजीरों को तोड़ कर बेगमपुरा और समाजवाद के सुनहरी नियमों के आधार पर नव समाज की सृजना में महत्तवपूर्ण भूमिका निभाने में सक्षम है।
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