संजय तिवारी
कुछ दिनों पहले जिस रामलीला मैदान में बाबा रामदेव किसी दूसरे संगठन के मंच और मुद्दे पर अतिथि बनकर आये थे, आज उसी स्थान पर, उसी मंच पर, उन्हीं लोगों के बीच एक बार फिर बाबा रामदेव मौजूद थे लेकिन इस छोटे से अंतराल में मंच भी उनका हो चुका था, मुख्य वक्ता भी वे थे और मुद्दा भी अब बाबा रामदेव का है. आज रामलीला मैदान पर रामदेव ने जिस जमावड़े का आयोजन किया था वह महज रामदेव को प्रारब्धवश प्राप्त यश नहीं था. रामदेव के पास इससे अधिक बहुत कुछ है.
रामदेव उस पंथ से आते हैं जिसने भारत में पहली बार हिन्दुओं को 'हिन्दू' कहकर संगठित करने का काम शुरू किया. आर्य समाज से पूर्व किसी ने भी हिन्दुओं के लिए कोई सामािजक संगठनात्मक ढांचा खड़ा नहीं किया था. यह काम स्वामी दयानन्द सरस्वती ने किया. आर्य समाज से पहले हिन्दुओं का एक संगठन के बतौर निर्माण या इस्तेमाल की बात किसी ने सोची नहीं थी. १८७५ से मुंबई में शुरू हुआ आर्य समाज आंदोलन कोई एक शताब्दी बाद ही अप्रासंगिक हो गया. लेकिन इस दौर में आर्य समाज एक विकसित पंथ बन चुका था। लेकिन एक पंथ होने के बाद भी उसका प्रभाव आधुनिक भारत में नगण्य है. ऐसे में जब बाबा रामदेव का बतौर योग गुरू सामाजिक उभार हुआ तो बिखरा हुआ आर्य समाज चुपके से उनके पीछे एकत्रित हो गया. आज दिल्ली की रैली में रामदेव के पीछे खड़ा आर्य समाज साफ दिखाई दे रहा था. मंच पर अगर स्वामी अग्निवेश नेपथ्य में संयोजन कर रहे थे तो नीचे स्रोताओं में बड़ा वर्ग महर्षि दयानन्द का अनुयायी नजर आ रहा था. जिस प्रकार स्वामी दयानन्द सरस्वती सामाजिक और राजनीतिक सक्रियता को सन्यास का हिस्सा मानते थे, आर्य समाज को जीवन में उतारनेवाले सन्यासी भी मानते हैं कि सन्यासी को समाजसेवा भी करनी चाहिए और राजनीति भी. स्वामी रामदेव ने साफ कहा भी कि सन्यासी को सन्यास धर्म और राज धर्म दोनों का निर्वहन करना चाहिए. वे उसी परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं.
रामदेव का राजनीतिक आगाज इससे बेहतर और क्या हो सकता था कि चंद रोज पहले जिस अरविन्द केजरीवाल की पहल पर वे रामलीला मैदान में लोकपाल विधेयक के समर्थन में आये थे आज उसी मंच से अरविन्द केजरीवाल या किरण बेदी बाबा रामदेव के दूत बनकर बोल रहे थे. मुख्य मंच और आस पास दो अन्य मंच. तीनों पर करीब सौ सवा सौ लोगों की फौज. कुछ सन्यासी, कुछ मौलवी, कुछ पादरी, कुछ समाजसेवी और कुछ ऐसे राजनीतिज्ञ जो हाशिये पर जा चुके हैं. वे सब बाबा रामदेव की जय बोल रहे थे. ऐसा करने का उनके पास वाजिब कारण था. रामलीला मैदान पर करीब एक लाख लोगों की मौजूद भीड़ किसी भी वक्ता को इतना सम्मोहित कर सकती है कि वह उस व्यक्ति की बलिहारी जाए जिसने इस भीड़ को इकट्ठा किया है. आज रामलीला मैदान पर जो भीड़ इकट्ठा थी, वह सिर्फ और सिर्फ बाबा रामदेव की बलिहारी है. जब १९९५ में बाबा रामदेव ने ट्रस्ट बनाकर योग शिक्षा देने का कार्यक्रम शुरू किया था तब उसी हरिद्वार में दर्जनों मठ और आश्रम योगाभ्यास करा रहे थे लेकिन किसी ने इसे आम आदमी से जोड़ने की कोशिश कभी नहीं की. महत्वाकांक्षी बाबा रामदेव ने कुछ ही सालों में यह भांप लिया कि योग को रोग भगाने का रास्ता बताया जाए तो लोग तत्काल उनकी ओर आकर्षित होंगे. बाबा रामदेव ने यही किया और लोग उनकी ओर आकर्षित हुए. इतनी बड़ी संख्या में आकर्षित हुए जितने की कल्पना खुद बाबा रामदेव नहीं की होगी. लेकिन इस आकर्षण को बाबा रामदेव ने सिर्फ योग प्रशिक्षण तक ही सीमित नहीं रखा. रामदेव के लिए योग वह औजार साबित हो गया जिसकी बदौलत वे बड़ी संख्या में लोगों को जोड़ रहे थे. लेकिन रामदेव की असली महत्वाकांक्षा कुछ और थी.
शुरूआत के िदनों से बाबा रामदेव दूसरे बाबाओं की ही तरह राजनीतिक संरक्षण पाना चाहते थे. उन्होंने इसकी भरपूर कोशिश की और उन्हें सफलता भी मिली. लेकिन जल्द ही रामदेव को यह भी महसूस हो गया कि जो लोग उनके नाम पर इकट्ठा हो रहे हैं वे दूसरों को वोट क्यों दें? रामलीला मैदान की रैली में जिन्होंने भी रामदेव को बोलते हुए सुना होगा वे इस बात को महसूस कर रहे होंगे कि रामदेव अपने राजनीतिक अभियान पर निकल पड़े हैं. मसलन जिस कांग्रेस की वजह से वे काले धन को लेकर विवाद में आये उस कांग्रेस को आज सीधा जवाब देते हुए रामदेव ने कहा-"मैं तो अपने रुपये पैसे का हिसाब देता हूं, लेकिन तुमसे (कांग्रेस से) अब जनता हिसाब मांगेगी." न केवल कांग्रेस को बल्कि एक बार फिर नेहरू गांधी परिवार का नाम लिये बिना उसे लानत भेजी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सर्वाधिक भ्रष्ट सरकार का ईमानदार प्रधानमंत्री घोषित किया. बोलते हुए बाबा रामदेव अपना वह दर्द भी नहीं छिपा पाये जो मनमोहन सिंह के कार्यालय ने आज ही उन्हें दिया है. रामदेव ने कहा कि उन्होंने प्रधानमंत्री से भी मिलने का टाइम मांगा था लेकिन प्रधानमंत्री कार्यालय से उन्हें समय नहीं मिला. रामदेव ने आगे कहा कि वे तो प्रधानमंत्री से मिलने की कोशिश करते रहेंगे लेकिन अगर प्रधानमंत्री ने मिलने का समय नहीं दिया तो अगली बार जनता उनको वहां जाने का समय नहीं देगी. साफ है, रामदेव सीधे सीधे कांग्रेस को चुनौती दे रहे हैं क्योंकि कांग्रेस ही वह राजनीतिक पार्टी है जिसने उन्हें ब्लडी इंडियन घोषित किया है. वह भी इसलिए क्योंकि रामदेव ने काले धन का कनेक्शन इटली से जोड़ने की हिमाकत कर दी है.
रामलीला मैदान की रैली में मंच पर जो सामाजिक आंदोलनकारी बैठे थे उनकी बाबा रामदेव के साथ आना मजबूरी है. रामदेव उन्हें उतना बड़ा प्लेटफार्म मुहैया करा रहे हैं जो किसी एनजीओ के लिए खड़ा कर पाना कभी संभव नहीं होगा. इसलिए जो भी आया बाबा रामदेव में अपनी श्रद्धा दिखाई और उन्हें मसीहा घोषित किया. गोविन्दाचार्य और स्वामी अग्निवेश जैसे अर्ध सामाजिक अर्ध राजनीतिक प्राणियों के लिए भी रामदेव का मंच प्राणदायिनी है इसलिए रामदेव की प्रशंसा करना उनकी भी मजबूरी है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ क्योंकि हर ऐसे किसी अभियान या आंदोलन में छद्म रूप में विद्यमान रहता है इसलिए आरएसएस का भी वरदहस्त किसी न किसी स्वरूप में रामदेव को प्राप्त है. मसलन, आज रामलीला मैदान की रैली में मंच पर ऐसे दो बड़े संत मौजूद थे जो आरएसएस के प्रचारक रहे हैं. अब ऐसे किसी मंच पर जहां सबके अपने अपने निहित स्वार्थ हों वे भला क्या बात करेंगे? सिवाय रामदेव की जय करने के किसी ने भी कोई एक बात नहीं की. जैसे.....
किरण बेदी ने लोकपाल विधेयक का सवाल उठाते हुए कानून बनाने की जिद्द में लोगों से नारे लगवाये. केजरीवाल ने भी कानून बनवाकर कुनैन की गोली खिलाने की वकालत की. स्वामी गोविन्द देव ने गुरू गोलवरकर तक की परंपरा को याद दिलाया. अण्णा हजारे ने पांच अप्रैल से अपने अनशन की सूचना दी और वहां मौजूद लोगों के शामिल होने की अपील की. गोविन्दाचार्य ने श्लोक पढ़ा, रामदेव की प्रशंसा की लेकिन कहा कुछ नहीं. राम जेठमलानी को भी बुलाया गया था यह बताते हुए कि अब रामदेव के लिए आरटीआई से सूचना जुटाने का काम राम जेठमलानी ही करते हैं. उन्होंने भी अपने मूल मुद्दे "काले धन" का सवाल उठाया. कुछ कवियों ने वही ऐतिहासिक कविता पाठ इस मंच से भी किया जो पचहत्तर में जयप्रकाश नारायण की मौजूदगी में किया था. चौंकानेवाली बात सिर्फ इतनी थी कि उनकी कविता में कारगिल के शहीद भी थे और लश्कर-ए-तैयबा का जिक्र भी.
फिर भी रैली ऐतिहासिक थी इस मायने में कि रामदेव अब रोड रोलर की तरह राजनीति में आगे बढ़ेंगे. इसके लिए जितना आर्थिक, सांगठनिक और सामाजिक जमीन उन्हें चाहिए वे वह तैयार कर चुके हैं. अपनी इस राजनीितक यात्रा में उन्हें कांग्रेस जैसा शास्वत राजनीतिक दुश्मन भी मिल गया है जिसके विरोध के नाम पर ही भारत में राजनीतिक जमीन पैदा हुई है. यह रामदेव के लिए सुखद संयोग है इसलिए अब वे गांव गांव जाने और तहसील तहसील अलख जगाने की घोषणा कर रहे हैं. उनकी घोषणा में दम इसलिए भी है क्योंकि रामदेव अपनी बात आम आदमी तक पहुंचाने की कला जानते हैं. रामदेव में आक्रामता भी और आम आदमी से संवाद स्थापित कर लेने की क्षमता भी. इसलिए उन्होंने महज पंद्रह सालों में देश में ऐसा समर्थक वर्ग पैदा कर लिया है जो अब सिर्फ बाबा रामदेव को देखता है, उनके कर्मों को नहीं. यह रामदेव की संवाद कला का ही कमाल है कि वे अपने सामने मौजूद समूह को वह समझा पाते हैं जो वह समझाना चाहते हैं. शायद इसी वजह से उन्हें वह राजनीतिक जमीन साफ दिखाई दे रही है जो उन्हें देश का प्रधानमंत्री भी बना सकती है. रामदेव के समर्थक वैसे भी अब नारा लगाने लगे हैं-"देश का प्रधानमंत्री कैसा हो, बाबा रामदेव जैसा हो." उनके समर्थकों द्वारा लगाया यह नारा रामदेव की महत्वाकांक्षा को पूर्ण करेगा या फिर उन्हें धराशायी कर देगा यह इस बात पर निर्भर करेगा िक रामदेव अपनी संवाद क्षमता बरकरार रख पाते हैं या नहीं. क्योंकि आखिरकार राजा वही है जो प्रजा से संवाद करना जानता है.
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