Thursday, March 17, 2011

ये छींटे रंग के ही हों तो अच्छा

इस माह जब तक यह अंक आपके हाथों में होगा, आप पर होली और धुलेंडी का खुमार चढऩे लगा होगा. होली यूं तो देशभर में बड़े उत्साह के साथ मनाई जाती है लेकिन उत्तर भारत में इसका स्वरूप अलग ही है. वैसे बॉलीवुड की होली भी हमेशा यादगार रहती है. हम वर्षों से इस त्योहार को मनाते हैं. कोई इसे राधा-कृष्ण की ठिठोली के रूप में लेता है तो कोई मदनमास के रूप में. होली के साथ ही मौसम में बदलाव भी शुरू होता है. गेहूं की फसल जवान हो जाती है. किसान के मन में अलग तरह की हिलोर रहती है लेकिन बदलते सामाजिक परिवेश और एक नई अंगड़ाई लेते भारत में अब पर्वों का उत्साह कम होने लगा है. पश्चिमी सभ्यता ओढ़कर अपने संस्कारों को भूलते भारतीय समाज मे त्योहारों की उमंग और उत्साह कहीं फीका पडऩे लगा है. इसके साथ ही भ्रष्टाचार का महंगाई के रूप में दंश झेलती जनता का मन पीडि़त है और उसे अब होली के सुंदर रंग नहीं बल्कि सरकार की उजली चादर पर पड़े काले छींटों के कारण दुख और अफसोस हो रहा है. कभी कॉमनवेल्थ, कभी आदर्श सोसायटी, कभी सीवीसी और कभी क्वात्रोच्चि लगातार ऐसे मामलों में सरकार शर्म से डूब मरने को दिखाई देती है जो हमारी होली के उत्साह को कम कर रहा है. कैसे होली खेले कोई. देश में हाहाकार की स्थिति है. पूरी सरकार बाजार को बचाने के लिए आम जन की परीक्षा लेने को आमादा हो गई है. इस देश का आम आदमी पर्व त्योहार पर ही तो खुश होता था, वह खुशियां भी आपने महंगाई के आंचल में समेटकर रख दी. देश अपने ईमानदार प्रधानमंत्री से न्याय की उम्मीद कर रहा है. जगह-जगह खेली जा रही खून की होली से वह निराश और हताश है. उसके जीवन में रंग भरने की जिम्मेदारी इस देश की सरकार की है और उसे अपनी जिम्मेदारियों से भागना नहीं चाहिए. देश के आम आदमी के हिस्से में जो आता है, कम से कम वह तो उस तक पहुंचाइए. हम देखते रहे हैं कि होली के त्योहार की उमंगें कितनी होती थी. रंग, गुलाल, मस्ती, धमाल, नाच-गाना और पागलपन की हद तक उत्साह का त्योहार ही तो है होली. आइए, हर व्यक्ति के जीवन में रंग भरने का प्रयास करें ताकि हर आदमी के चेहरे पर नूर दिखाई दे, एक भारतीय होने के नाते हम सबकी नैतिक जिम्मेदारी है कि अपने बंधु-बांधवों को भी खुशियों की सौगात देकर अपनी पुष्पित-पल्लवित परंपराओं का निर्वहन करें. किसी का जीवन बदरंग होने से बचाएंगे तो दिल को सुकून मिलेगा. इस होली पर यह कोशिश करें कि छींटे रंग के ही हों, होली का हुड़दंग न हो. फूलों की होली खेलें, पानी की बचत करें और महसूस करें कि इस होली पर आपने पर्यावरण, प्रकृति और समाज को क्या कुछ दे दिया है. तभी सार्थक होगी होली और धुलेंडी. नव संवत भी है, हम भारतीय नववर्ष के मौके पर सभी को शुभकामनाएं देते हैं और उम्मीद करते हैं कि भारत का राज समाज अपनी जिम्मेदारियों को समझेगा और इस देश के अंतिम आदमी तक भी इंसाफ और न्याय की रोशनी पहुंचेगी, वह खुशहाल होगा तो ही देश समृद्ध हो सकेगा.

आर्थिक नीतियों का आम आदमी पर प्रभाव

वीरेन्द्र भाटिया
 भारत में  आर्थिक नीतियों को उदार बनाने का श्रेय 1991 के तत्कालीन वित्त मंत्री एवं वर्तमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिह को जाता है। विष्व की आर्थिक मंडी  में जब साम्यवादी चीन भी गोता लगाने की तैयारी में था तो भला मिश्रित अर्थव्यवस्था वाला यह देष किस कदर पीछे रहता। भारत में उदार आर्थिक बाजार के 20 बरस पूरे हो गये है। और 20 बरस किसी भी निर्णय के मूल्यांकन के लिए कम समय नही होता। आज बीस बरसों बाद यदि आर्थिक नीतियों का या उदार बाजार का मूल्यांकन करें तो हम स्वय को कहां पाते है और आम आदमी इस पूरे खेल के केन्द्र में है या केन्द्र से बाहर है यह विवेचना हमें  अब तो कम से कम कर ही लेनी चाहिए।
 विवेचना  हमे उन आपत्तियो की ही करनी चाहिए जो उदारीकरण के वक्त उठाई गई थी ताकि यह संज्ञान रहे कि आपत्तियां दूरदर्षी थी या नीतियां।
 उस वक्त की पहली आपत्ति और तर्क था कि जब पूंजी को बाजार में खेलने के लिए छूट मिलती है तो वह संसाधनों का अनावष्यक दोहन करता है। देष के संसाधनों पर आम आदमी का उतना ही हक है जितना किसी खास का। और यदि उन संसाधनों से आम आदमी अपना पेट भर रहा है तो  वे संसाधन आम आदमी के ही होने चाहिए लेकिन पूंजी अपने प्रभाव से उन संसाधनो को हथिया लेती है।
 यदि हम पूरे देष की स्थिति पर नजर डालंे तो इस वक्त पंजी के खेल से आम आदमी बाहर हो रहा है। जहां जहां संसाधन है वहां वहां निजी कंपनियां अपना प्रभुत्व कायम कर रही है। नक्सलवाद की यदि जड को पहचानने की कोषिष करें तो संसाधनों पर पूंजी के कब्जे और आम आदमी के संघर्श की ही कहानी है यह नक्सलवाद। और यह संघर्श उन्ही राज्यों में है जहां साम्यवाद का कुछ असर है। अन्यत्र राज्यों में लोग अपनी जमीन पूंजीपतियों को बेच देते है। जमीदार वह राषि लेकर अन्यत्र जमीन ले लेता है, भूमिहीन अपने को ठगा सा देखता रहता है, सरकार जमीन के उंचे भाव देकर अपनी पीठ ठोकती रहती है, आम आदमी कहीं चर्चा, केन्द्र और निर्णय में  नजर नही आता। स्टरलाईट के मालिक अनिल षर्मा जब यह कहते हैं कि जमीन के नीचे का सारा व्यापार हमारा है तो वह यह कह रहा होता है कि हमारे पास पूंजी का इतना अम्बार है कि देष में कही भी माईन या तेल या कोयला, खनिज मिलेगा उसे हम खरीद लेंगे। उडीसा में जब स्टरलाईट को खदान कार्य के लिए रोका जाता है तो वह अगले दिन सोनिया गांधी से मिलने पहुंच जाता है। पर्यावरण मंत्री जय राम रमेष को तब समझ में आता है कि पर्यावरण इस देष मे मुद्दा नही है। और स्टरलाईट खदान कार्य निरंतर जारी रखती है। पूंजी को खेलने के लिए जिन नियमों की जरूरत थी वह पिछले बीस बरसों में कही नजर नही आये और सरकारें पूंजी के आगे नतमस्तक होती रही।
  आज पूंजी को बाजार में खेलने की खुली छूट दी गई उनमें एक आपत्ति दूसरे किस्म की है कि एक समय के बाद बाजार में पूंजी ही भाव तय करती है, सरकारें नही। आज यह आपत्ति अपने पूरे असर के साथ खडी है जब सरकार के प्रमुख लोग कहते है कि महंगार्इ्र उनके नियंत्रण में नही है। तेल के भाव भी जब बाजार तय करने लगेंगे जिसका सीधा सम्बन्ध महगाई से है, खाद्य वस्तुओं के  टा्रंसपोर्टेषन से है तो महंगाई कैसे और क्यूं काबू आये यह  समझा जा सकता है। तेल की कीमतों को बाजार के हवाले कर देने का मतलब है तेल कंपनियां अपने लाभ और हानि को खुद देखें। गोया कि तेल कंपनियों की बैलेंस षीट आम आदमी के जीवन से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गई है। और तेल कंपनियां तेल की कीमत निर्धारण में कितनी बेईमान है इसका हम सबको पता है। आज बाजार चीनी के दाम बढाता है, प्याज के दाम बढाता है, दाल, गेहूं और सब्जियों तक के दाम बढा देता है। विदेषी कंपनियां 700 रू क्विटल के हिसाब से गेहूं खरीद लेती है, भारत मे ही गेहू पडा रहता है, जब देष को जरूरत पडती है तो हमी को 1400 ये के हिसाब से बेच देते है।  रिलांयस फ्रैष सेब के बाग से सेब, प्याज के खेत से प्याज सीधे उठाकर स्टोर कर लेता है और रिटेलर तक सीधा पहंुचता है तो कीमत तो मनमर्जी की ही वसूलेगा। पूंजी को खेलने का पूरा स्पेस दिया गया है, आम आदमी को चलने के लिए भी टोल टैक्स देना पडता है। प्याज स्टोर करने वालों को  यह देष सबक सिखा सकता है यदि पूरा देष आदोलन में कूद पडे कि हम प्याज नही खाएंगे, आप स्टोर में रखिए लेकिन 50रू से जब 40 रू का भाव आता है तो हमें प्याज सस्ते लगने लगते है। पूंजी ऐसे ही बनाती और ऐसे ही बनती और बढती है।
तीसरा तर्क जो उदारीकरण के वक्त दिया गया वह था सरकार की निजी पूंजी पर निर्भरता। बढते भ्रश्टाचार के चलते यह तो अच्छा था कि निजी सैक्टर निर्माण कार्य में जुटें। दिल्ली के पुल और मैट्रो इसका अच्छा उदाहरण है, लेकिन देष का सडक जैसे मुख्य काम से हाथ खींच लेना और निजी कंपनियों को इस षर्त पर टुकडे बांट देना कि 25 साल तक यहां से गुजरने वाले वाहन से टोल टैक्स काटते रहो और सडक का यह टुकडा तुम्हारा, बेहद निंदनीय कार्य है। सडक जैसे मूलभूत काम को भी जब पूंजी के हवाले कर दिया गया है तो आम आदमी की तो सडक भी नही रही। कही नैनो भी जुगाड करके ले लेगा तो घर में ही खडी रखेगा या षार्ट कट ढूढेगा कि कहां टोल टैक्स  नही है। आंध्रा में मैट्रो का ठेका सत्यम के राजू के बेटे माईटास कंपनी के मालिक को इसी षर्त पर दिया गया था मैट्रो आप बनाओ और 25 साल तक उसकी कमाई आपकी। राजू ने सत्यम उस ठेके में गवां दी। यदि वह सत्यम और माईटास वह गेम सिरे चढ जाती तो हैदराबाद में प्रोपर्टी घोटाले का फिगर हमारे कैलकुलेटर से बाहर होता। लेकिन सरकार ने यह छूट दे दी थी और सरकार सत्यम के राजू के आगे नतमस्तक थी।
पूंजी के खेल का जो फायदा देष के आम आदमी को होना था वह था कंपनियां की आपसी प्रतियोगिता में उत्पाद का सस्ते में उपलब्ध होना। लेकिन पूंजी का खेल खेलने वाले इतने बेवकूफ कभी नहीं होते की गला काट प्रतियोगिता में उलझ कर अपनी ही पूंजी से खिलवाड करेंगे। इस खेल में सिर्फ टेलीकॉम कंपनियां कूदी और उसका फायदा गा्रहकों को जरूर मिला। हालांकि इलैक्ट्रिक वस्तुएं संस्ती हुई, कंप्यूटर सस्ते हुए लेकिन आम आदमी का इन सबसे नजदीक का कोई वास्ता नही था। आम आदमी को घर बनाना था तो जमीन सस्ती नही रही, लोहा, सीमेट सस्ते नही रहे, आम आदमी को खाना खाना था तो दाल तक उसकी जेब से बाहर हो गई। रोटी कपडा और मकान से वंचित होता आम आदमी इस आर्थिक रूप से सक्षम भारत का एक दूसरा चेहरा है जिस पर सरकार की नजर नही है। आंकडों में सरकार हमेषा बाजीगरी करती आई है और गरीबी रेखा से नीचे वालो की संख्या में असरदार कमी दिखा रही है, हो सकता है कुछ हद तक कही सच्चाई हो लेकिन उदार भारत में पूंजी ने आम आदमी को बाहर कर दिया है यह सच है और सबसे बडी हार और हानि इस देष की इस चीज की हुई है कि पंूजी ने उन लोगों को भी खरीद लिया है जो आम आदमी की आवाज उठाते थे। इसलिए देष में 60 रू प्रति लीटर तेल, 50 रू किलो प्याज, 80 रू किलो दाल बिक जाती है और कोई आंदोलन नजर नही आता।
सरकार का सरदार मनमोहन सिंह रहे या आडवानी, पूंजी के प्रभाव में सब बंधे है। सिर्फ रटे रटाये षब्द है जिन्हे हम उच्चार कर अपने अतस को षंात कर लेते है कि पूजी के आगमन से रोजगार पैदा होता है। जबकि सच्चाई यह है कि पूंजी वही आती है जहां संसाधन और   श्रम मौजूद होता है। इस देष के कर्णधारों से हमें पूछना चाहिए कि हम पूंजी के आगे इतने असहाय क्यो हुए कि अपने संसाधनो और श्रम की सही कीमत ही नही वसूल पाये।
 

कवर स्टोरी : मम्मी-डैडी ने मारा!

आरुषि को न्याय का हक, दांव पर रिश्तों की साख
ऋषि पांडेय

 'गिव आरुषि तलवार जस्टिस. सबसे ताकतवर सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक पर ये पेज सबसे लोकप्रिय हो रहा है. यहां करीब 12,000 लोग आरुषि हत्याकांड और कातिलों को सजा दिलाने को लेकर अपनी बात रख रहे हैं. भारत में इंटरनेट क्रांति की ये सबसे बड़ी बानगी है. ये भारत में इंटरनेट की बढ़ती सामाजिक ताकत और उसके मायनों को दर्शाता है.
 जब से गाजियाबाद सीबीआई की विशेष अदालत ने इस दोहरे हत्याकांड में आरुषि के माता-पिता राजेश और नुपुर तलवार को आरोपी बनाया है, देशभर में ये बहस तेज हो गई है. तलवार दंपति पर हत्या, सबूतों को नष्ट करने और कॉमन क्रिमिनल कांसिपेरेसी रचने का मुकदमा चलेगा. दोनों को समन भेजा जा चुका है. 28 फरवरी को अदालत में पेश होंगे और चार्जेज फ्रेम करने के बाद ट्रायल का सामना करना पड़ेगा. राजेश तलवार फिलहाल जमानत पर हैं और गाजियाबाद सीबीआई कोर्ट के फैसले को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चैलेंज करने की तैयारी कर रहे हैं. वकीलों का एक बड़ा दल इस मामले को ड्राफ्ट करने में जुटा है लेकिन परिस्थिति जन्य साक्ष्य तलवार के खिलाफ हैं. इसलिए वकीलों के पसीने छूट रहे हैं.
 देश की सबसे बड़ी मर्डर मिस्ट्री को सुलझाने में जुटी देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी सीबीआई अब तक ये साफ नहीं कर पायी है कि अगर हत्या मां बाप ने ही की है, ये मान लिया जाए भी, तो लेकिन क्यूं. मर्डर का मोटिव यानी वजह क्या है? इसका पुख्ता कोई जवाब तो सीबीआई के पास नहीं है. लेकिन इशारा ऑनर किलिंग की तरफ है. यानी सामाजिक प्रतिष्ठा को कायम रखने के लिए हत्या. लेकिन राजेश और नुपुर तलवार की इकलौती संतान, 14 वर्षीय उनकी बेटी आरुषि ने आखिर ऐसा क्या कर दिया था. जिसकी वजह से उसकी जान लेने की जरूरत आन पड़ी या मजबूरी बन गई.
 ये जवाब जांच एजेंसी को जुटाना होगा, या राजेश और नुपुर तलवार से प्रामाणिक तौर पर उगलवाना होगा, तभी ये मामला कोर्ट में ट्रालय के दौरान स्टैंड कर पाएगा. सीबीआई के पास मैटीरियल एविडेंस के नाम पर कुछ भी नहीं है, न तो आला ए कत्ल है और न ही कातिल के खून से सने कपड़े. आरुषि का मोबाइल दो साल बाद यूपी से बरामद हुआ था, लेकिन उससे कुछ हासिल नहीं हुआ. नौकर हेमराज के मोबाइल का तो अब तक कोई अता पता नहीं है. ये सब कुछ ऐसे सिरदर्द हैं जिसका सामना करने से सीबीआई बचना चाहती थी. शायद इसीलिए उसने कोर्ट के शीतकालीन छुट्टियों के दौरान चुपचाप क्लोजर रिपोर्ट दाखिल कर दिया. सीबीआई के पूर्व निदेशक जोगिंद्र सिंह सीबीआई का बचाव करते हुए कहते हैं, 'जरूरी नहीं सीबीआई सब केसेज को सॉल्व ही कर दे, बहुत से मर्डर केस इतने ब्लाइंड होते हैं और कातिल इतना शातिर होता है कि सबूत जुटाना और उसे सज़ा दिला पाना जांच एजेंसी के लिए असंभव सा हो जाता है. इस मामले में भी हालात कुछ ऐसे ही थे. इसलिए क्लोजर रिपोर्ट लगानी पड़ी.
 लेकिन इसके ठीक उलट दिल्ली के सीनियर क्रिमिनल लायर केटीएस तुलसी कहते हैं कि 'परिस्थितिजन्य साक्ष्य भी साक्ष्य ही होते हैं, और इनकी बिनाह पर भी चार्जशीट दाखिल कर कातिल को सजा दिलाई जा सकती है. और अगर सरकम्सटांशियल एविडेंस तलवार के खिलाफ हैं तो तलवार पर हत्या का मुकदमा चलना चाहिए.
 तुलसी की बात में दम है, और शायद यही बात सीबीआई की स्पेशल जज प्रीति शर्मा के दिमाग में भी रही होगी कि क्लोजर रिपोर्ट को स्वीकार कर और केस को बंद करके न्याय की उम्मीद को पूरी तरह खत्म करने से अच्छा है कि क्लोजर रिपोर्ट को चार्जशीट में तब्दील कर तलवार  दंपती पर हत्या का मुकदमा चलाया जाए.
 इस रिपोर्ट में सीबीआई ने जिन आठ गवाहों का जिक्र किया है, उनके बयानों और तलवार की हत्या की रात और हत्या के बाद की गतिविधियों शक को और मजबूत करती हैं. (देखें बॉक्स-तलवार की तीन भूल) तलवार की गलतियों और उसके जानकारों के बयानों ने ही सीबीआई के शिकंजे को मजबूत कर दिया है.
 28 फरवरी को अदालत में तलवार दंपती की पेशी के बाद ये मर्डर मिस्ट्री नए मोड़ ले सकती है. मीडिया खासतौर पर न्यूज चैनलों को संयम से काम लेना चाहिए और जो न्याय की उम्मीद जगी है, उस उम्मीद को जिंदा रखना चाहिए.
 जेसिका लाल, नीतिश कटारा, प्रियदर्शिनी मट्टू और रुचिका जैसे मामलों में समाज और मीडिया ने जिस तरह आगे आकर न्याय की उम्मीद के चिराग को जलाए रखा, क्या ये आरुषि के मामले में भी तार्किक परिणति तक पहुंच पाएगा. ये तो वक्त तय करेगा लेकिन इस मामले की रहस्य-कथा न्याय और अपराध में रुचि रखने वालों के लिए मॉडल केस स्टडी मैटीरियल बना रहेगा.

कब-कब क्या हुआ

16 मई 2008-आरुषि की लाश उसके कमरे से मिली
17 मई-हेमराज का शव तलवार के घर से मिला
18 मई-नोएडा पुलिस ने कहा-सर्जिकल ब्लेड से हुई हत्या
19 मई-तलवार के पुराने नौकर विष्णु पर शक
22 मई-आरुषि के माता-पिता पर शक
23 मई-राजेश तलवार गिरफ्तार
1 जून-जांच शुरू की सीबीआई ने
13 जून-तलवार का कंपाऊंडर कृष्णा गिरफ्तार
20 जून-राजेश तलवार का लाई डिटेक्शन टेस्ट
25 जून-मां नुपुर तलवार का लाई डिटेक्शन टेस्ट
26 जून-सीबीआई ने कहा, ब्लाइंड मर्डर केस
12 जुलाई-राजेश तलवार जेल से रिहा
4 सितंबर 2009-हैदराबाद की सीडीएफडी लैब ने कहा, सैंपल सही नहीं
5 जनवरी 2010-सीबीआई ने क्लोजर रिपोर्ट दाखिल किया लेकिन तलवार दंपती पर शक
3 जनवरी 2011-अदालत ने क्लोजर रिपोर्ट का परीक्षण किया


बदलती रही जांच टीम-हत्यारे पकड़ से बाहर
इस सनसनीखेज हत्याकांड की जांच पहले नोएडा पुलिस ने शुरू की. लेकिन धरनास्थल की सही जांच में पहले दिन से लापरवाही बरती गई. 17 मई को छत से हेमराज की लाश मिलने के बाद पुलिस की बेहद किरकिरी हुई और 18 मई को यूपी एसटीएफ ने जांच शुरू की. 23 मई को नोएडा पुलिस ने राजेश तलवार को गिरफ्तार कर केस को सॉल्व करने का दावा किया. लेकिन 29 मई को उत्तर प्रदेश सरकार की संस्तुति पर मामला सीबीआई को सौंप दिया गया. अरुण कुमार के नेतृत्व में जांच शुरू हुई जिसमें राजेश तलवार को क्लीन चिट दिया गया और जेल से रिहा किया गया.
 चार सितंबर 2009 का सनसनीखेज खुलासा हुआ जब हैदराबाद की सीडीएफडी लैब ने कहा कि सीबीआई ने जो सैंपल जांच के लिए भेजे हैं, वो आरुषि के हैं ही नहीं. इस खुलासे के बाद अरुण कुमार को जांच से हटाकर नई टीम बना दी गई. नई टीम ने 29 दिसंबर 2010 को क्लोजर रिपोर्ट दाखिल कर कहा कि उसे शक तो तलवार दंपती पर है लेकिन पर्याप्त सबूत नहीं हैं. अदालत ने इसी क्लोजर रिपोर्ट को चार्जशीट मानते हुए तलवार दंपती को आरोपी बनाया.

नौकरों को बेवजह मिली सज़ा का हिसाब कौन देगा?
आरुषि हेमराज की हत्या और अरुण कुमार के नेतृत्व में सीबीआई की जांच ने तीन बेकसूर नौकरों की जिंदगी बदल कर रख दी. राजेश तलवार के कंपाऊंडर कृष्णा को तीन महीने जेल में काटने पड़े और आज वो एक न्यूज चैनल में कार चला रहा है. तलवार के दोस्त डॉ. अनिता दुर्रानी के नौकर राजकुमार को भी आरोपी बनाकर जेल भेजा गया. आजकल वो नेपाल में है. पड़ोसी के एक और नौकर विजय मंडल को भी जेल भेजा गया. बाद में वो भी अदालत से बरी हुआ और अब वो बिहार के अपने गांव में रहता है. नौकरों के वकील अब अरुण कुमार और उनकी टीम के सदस्यों पर मुकदमा करने की तैयारी में हैं. सवाल ये है कि इन नौकरों का जीवन जिस तरह बर्बाद हुआ और बदनामी हुई उसका हिसाब तो अरुण कुमार से ही पूछा जाना चाहिए.

क्या तत्कालीन नोएडा पुलिस की जांच सही नहीं थी
तमाम गलतियों के बावजूद नोएडा पुलिस ने हफ्तेभर में जिस तरह केस को सॉल्व किया था, 941 दिन बाद देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी सीबीआई भी उसी नतीजे पर पहुंची है. जब यही करना था तो राजेश तलवार की गिरफ्तारी को तब गलत ठहराकर उन्हें क्लीनचिट कैसे मिल गई? नौकरों को ख्वामखाह क्यों बलि का बकरा बनाया गया. ये सवाल नोएडा पुलिस के तत्कालीन अधिकारी पूछ रहे हैं. नोएडा के तत्कालीन पुलिस कप्तान सतीश गणेश को गलत ठहराकर बलि का बकरा बनाया गया था. उनका ट्रांसफर कर दिया गया था और आज यूपी पुलिस महकमे में कहीं गुमनामी की जिंदगी जी रहे हैं.

तलवार की तीन भूल
ज्यों ज्यों आरुषि हत्याकांड की जांच की परतें खुल रही हैं त्यों त्यों राजेश तलवार के इर्द गिर्द शिकंजा मजबूत होता जा रहा है. क्लोजर रिपोर्ट में आठ गवाहों के बयानों से सीबीआई का केस मजबूत होता जा रहा है. कहते हैं हत्यारा कितना भी शातिर और पढ़ा लिखा क्यों न हो, सबूत मिटाते वक्त वो खुद कुछ ऐसी गलतियां करता है जिससे जांच एजेंसी के जाल में फंस ही जाता है. हां, अपराधी शातिर हो तो उसकी गर्दन तक पहुंचने में थोड़ा वक्त जरूर लगता है. आरुषि मामले में भी डॉ. राजेश और नुपुर तलवार ने तीन ऐसी भूल की और फंस गए सीबीआई के शिकंजे में. सीबीआई ने जो आठ गवाह बनाए हैं, उनमें ज्यादातर तलवार के जानने वाले हैं और जाने अनजाने सीबीआई और मजिस्ट्रेट के सामने उन्होंने वो सच उगल दिया जिसमें तलवार फंसते चले गए. तलवार की पहली भूल है-पुलिस के आने से पहले घर की साफ सफाई और आरुषि के कमरे से छेड़छाड़ करना. डॉ. तलवार के जानकार डॉ. रोहित कोचर और राजीव वाष्र्णेय ने सीबीआई को बताया कि वे दोनों पुलिस के आने से पहले एल-32 में पहुंचे थे और साफ सफाई, पोंछा मारने के निशान देखे. रोहित और राजीव ने डॉ. तलवार से सीढिय़ों पर पड़े खून के छींटे और छत के दरवाजे के हैंडल पर लगे खून के बारे में भी बताया था. छत पर ताला बंद था और डॉ. तलवार ने छत का ताला खोलकर खून के बारे में जानने की कोशिश नहीं की, क्योंकि वे जानते थे छत पर हेमराज की लाश पड़ी थी. तलवार की दूसरी बड़ी भूल ये थी कि हत्या के दूसरे ही दिन उन्होंने पेंटर शोहरत को बुलाकर आरुषि के घर का पार्टिशन पेंट करने और ग्रिल हटाने को कहा था. शोहरत को डॉ. तलवार 1992 से जानते थे और पेंट करने के लिए उसे 25 हजार रुपए दिए गए. शोहरत ने ये बयान सीबीआई और मजिस्ट्रेट के सामने दिया है, जो सबूत नष्ट करने के मामले में तलवार के लिए मुश्किलें खड़ी करेगा. तलवार की तीसरी बड़ी भूल थी-राजेश तलवार के बड़े भाई दिनेश तलवार का आरुषि का पोस्टमार्टम करने वाले डॉ. सुनील दोहरे को फोन करना और किसी बड़े डॉक्टर का हवाला देकर पोस्टमार्टम रिपोर्ट को प्रभावित करना. सीबीआई ने डॉ. सुनील दोहरे को भी गवाह बनाया है. ये तीन ऐसी बड़ी गलतियां हैं जो डॉ. तलवार और उनकी पत्नी के लिए गले की फांस बन गई हैं. तलवार दंपती के वकीलों के पसीने छूट रहे हैं कि इनकी काट कैसे तैयार की जाए. क्योंकि तलवार परिवार गाजियाबाद सीबीआई विशेष अदालत के फैसले को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती देने पर विचार कर रहा है.

कत्ल तो हेमराज का भी हुआ था
16 मई को आरुषि मर्डर केस में नोएडा सेक्टर 34 थाने में जो एफआईआर दर्ज हुई उसमें हेमराज को हत्यारा ठहराया गया था. 16 मई की सुबह कहानी बड़ी साफ दिख रही थी कि घर का नौकर हेमराज आरुषि का कत्ल कर फरार हो गया है. क्योंकि घर में लड़की की लाश और घर से नौकर फरार. पुलिस की जांच को गुमराह करने के लिए डॉ. राजेश तलवार भी पुलिस से बार-बार निवेदन कर रहे थे कि हेमराज को ढूंढि़ए. दहाड़ कर रो रहे थे कि हेमराज ने मेरी बेटी को मार डाला, लेकिन अपने दोस्तों के कहने पर और यहां तक कि पुलिस के कहने पर भी छत के ताले की चाभी नहीं दे रहे थे, क्योंकि वे जानते थे छत पर हेमराज की लाश पड़ी थी.  पुलिस ने डॉ. तलवार के कहने पर रेलवे और बस अड्डों पर हेमराज की तलाश शुरू कर दी और एक टीम नेपाल भी भेज दी जहां का हेमराज रहने वाला था. 17 मई को सुबह 11 बजे तक हेमराज लोगों की नजऱ में एक विलेन था. सब कह रहे थे नौकरों का कोई भरोसा नहीं, कुछ भी कर सकते हैं, आदि-आदि....
 कहानी में ट्विस्ट तब आया जब रिटायर्ड डीसीपी केके गौतम की एंट्री हुई और मीडिया की मौजूदगी में छत का ताला तोड़ा गया. छत पर हेमराज की लाश पड़ी थी, कूलर के ढ़क्कन से इसे ढंक दिया था. मुझे याद है, हेमराज का कत्ल बड़ी बेरहमी से किया गया था, उसका गला रेत कर हत्या की गई थी.
 कहानी पलट गई, सनसनी फैल गई और मीडिया के कैमरे टूट पड़े छत की तरफ, और दर्जनों ओबी वैन जलवायु विहार की ओर. पुलिस का माथा ठनका, पैरों के नीचे से जमीन खिसक चुकी थी. पुलिस के आला अधिकारी मौके पर पहुंचे. हेमराज की लाश को पोस्टमार्टम के लिए भेजा गया. पुलिस कप्तान ने पहला फोन पुलिस की उस टीम को मिलाया जिसे हेमराज को तलाशने के लिए नेपाल भेजा गया था. कप्तान बोले वापस आ जाओ, हेमराज की लाश छत से बरामद हो गई है.
 पुलिस कप्तान ने दूसरा फोन डॉ. राजेश तलवार को मिलाया-पूछा कहां हैं आप? आपके नौकर की लाश छत से मिल गई है, आकर शिनाख्त कीजिए. तलवार ने कहा मैं तो आरुषि की अस्थियां गंगा में बहाने के लिए हरिद्वार जा रहा हूं, रास्ते में हूं, वापस लौटकर बात करूंगा. ये कहकर तलवार ने फोन काट दिया. इसी बीच तलवार ने न सिर्फ फ्लैट की साफ सफाई करवा दी थी बल्कि आरुषि की अंत्येष्टि कर अस्थियां विसर्जित करने हरिद्वार निकल चुके थे. हेमराज की उम्र 50 साल के करीब थी. वो नेपाली थी, खाना अच्छा बनाता था, कम बोलता था और शराब नहीं पीता था. हेमराज का परिवार नेपाल में ही आज भी रहता है. इसकी पत्नी ज्यादातर बीमार रहती है, दिल्ली में एक बार सफदरजंग में इलाज के लिए आई थी तब हमने उससे मुलाकात की. उसका परिवार बेहद गरीब है. हेमराज का दामाद जीवन आज भी नोएडा में ही एक व्यवसायी समीर अटोरा का घरेलू नौकर है. नोएडा पुलिस ने हेमराज की तलाश में उसकी खूब पिटाई की थी, बाद में लाश मिलने पर जीवन को छोड़ दिया गया.  बाद में उसी एफआईआर को दोहरे हत्याकांड में बदला गया और इस दोहरे हत्याकांड में अब तलवार दंपती आरोपी हैं. उम्मीद है आरुषि के साथ साथ हेमराज को भी न्याय मिलेगा, वो नौकर था तो क्या हुआ, उसका गुनाह सिर्फ ये था कि वो गलत समय में गलत जगह मौजूद था. हत्या का गवाह बन गया था इसलिए जान से भी हाथ धोना पड़ा.

Letter to Editor

बदलाव की गुंजाइश

 टोटल स्टेट में छपी स्टोरी नीतिश कुमार की कामयाबी का राज में मटुक जी ने बिहार में लालू-नीतिश की कार्यशैली का विवरण दिया. वास्तव में लालू के कार्यकाल में ही बिहार की स्थिति ऐसी नहीं थी. पिछले 50 साल में जिन हालात में बिहार जी रहा था, इसमें बदलाव की कोई जरूरत लालू प्रसाद ने नहीं समझी. बिहार में जातिवाद, अनपढ़ता, बेरोजगारी, गुंडागर्दी जैसी अनेक समस्याएं लालू-राबड़ी के काल में रहीं. इनमें बदलाव की गुंजाइश को समझते हुए नीतिश ने सही रणनीति अपनाकर बिहार का चेहरा बदलने की कोशिश की. ये कोशिश कहां तक सार्थक व कामयाब रही इसका प्रत्यक्ष उदाहरण अभी हुए विधानसभा चुनाव थे परंतु अभी भी बिहार का आंतरिक परिदृश्य बदलने की जरूरत है. शायद नीतिश जी इसमें भी जीत हासिल करें.

                                                                                                                          -शिवनारायण सिंह, पटना.




उपेक्षित महिलाओं का दर्द

डॉ. वीरेंद्र सिंह का स्त्री चिंतन कई बातों पर प्रश्न चिह्न लगाता है. इस देश में आदिकाल से महिलाओं को उपेक्षित, प्रताडि़त एवं अयोग्य बनाया गया है. उन्हें कभी सती प्रथा, कभी कन्या भ्रूण हत्या, कभी निरक्षरता की आग में जलना पड़ता है. महिलाओं से उनके अधिकार जबरन छीने लगए या यूं कहें कि उनके अधिकार प्रतिबंधित थे. महिलाओं को उनके अधिकार दिलाने के लिए भारत में समय-समय पर आंदोलन चले और उनकी लहर में कितने ही अमानवीय नियम भी बह गए. मुख्य रूप से महिलाओं को अधिकार दिलाने के लिए रामकृष्ण परमहंस से लेकर महात्मा ज्योतिबा फूले, डा. अंबेडकर, भगवान महावीर आदि ने अनेक आंदोलन चलाए. आज महिलाएं बेशक शीर्षस्थ पदों पर आसीन हैं लेकिन गांव में स्थितियां आज भी प्रतिकूल हैं. शायद उनकी हालत में सुधार हो सके.
                                                                                                                       -आलोक श्रीवास्तव, लखनऊ

याद रहेगा साल 2010

आपकी पत्रिका में छपा लेख गुजरा हुआ जमाना, आता नहीं दोबारा, अच्छा है. पिछला साल देश को कई खट्टे-मीठे अनुभव दे गया और एक नजर से तो साल 2010 घोटालों का ही साल रहा जिसने पूरे विश्व में भारत की इज्जत को बट्टा लगाया. चाहे वो कॉमनवेल्थ गेम्स हों, 2 जी स्पेक्ट्रम मामला हो या आदर्श हाउसिंग सोसायटी का मामला हो. जिसे भी मौका मिला, उसी ने भ्रष्टाचार की बहती नदी में हाथ धोने से गुरेज नहीं किया. देश में हुए 2 जी स्पेक्ट्रम जैसे महाघोटाले में मंत्री ही नहीं सरकारी कर्मचारियों से लेकर बड़े मीडिया घरानों के नाम भी शामिल हैं. कुल मिलाकर ऊपर से लेकर नीचे तक हर व्यक्ति भ्रष्टाचार में लिप्त पाया गया. इसी के साथ गुजरे साल में दुनिया के पांच शक्तिशाली देशों के राष्ट्राध्यक्ष भी भारत आए और भारत की शक्ति को पहचाना. भारत को यूएनओ की सदस्यता का अमेरिका जैसे देश ने समर्थन किया. कुल मिलाकर भारत के इतिहास में बीता वर्ष महत्वपूर्ण वर्ष के रूप में याद किया जाएगा.
                                                                                                                                संजय गोयल, हिसार.

भारतीयता को भुलाता भारत

टोटल स्टेट में प्रकाशित लेख भारतीय शिक्षा पद्धति की विनाशलीला पढ़ा. लेख पढ़कर ऐसा लगा जैसे देश भारतीयता को भुला रहा है. अपनी माटी, अपनी भाषा और अपनी संस्कृति को छोड़ता जा रहा है. इसमें कभी आम आदमी की कम लेकिन शासनतंत्र की कमी ज्यादा दिखाई देती है. सरकारी कार्यालयों में तख्तियों पर तो लिखा होता है कि मातृभाषा का सम्मान करें और कामकाज हिंदी में करें लेकिन उन्हीं कार्यालयों में तमाम काम अंग्रेजी में होता है. अंग्रेजी मानसिकता हमारे ऊपर हावी होती जा रही है. देश के अग्रणी अंग्रेजी माध्यम विद्यालयों में तो आम बोलचाल भी हिंदी में नहीं कर पाते बच्चे. हर तरफ अंग्रेजी का बोलबाला है और हिंदी अपने ही देश में पराई लगने लगी है. भारतीय शिक्षा पद्धति देश से लुप्त हो रही है जो अच्छा संकेत नहीं है.
                                                                                                                              राजेश भारती, कुरुक्षेत्र.

झारखंड में भी भेजें पत्रिका

एक मित्र के घर टोटल स्टेट पत्रिका का अंक देखा. आवरण पृष्ठ देखकर पत्रिका अच्छी लगी तो पढ़ ली. काफी अच्छा प्रयास है दऔर लेख भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर के हैं. आपसे पाठकों को बहुत आशाएं हैं क्योंकि आपने सच लिखने की हिम्मत जुटाई है. पत्रिका को रंगीन करने का प्रयास करें ताकि पाठक संख्या और अधिक बढ़ सके. झारखंड के बुक स्टॉल्स पर भी भिजवाएं पत्रिका, अच्छा रिस्पांस मिलेगा और यहां का पाठकवर्ग भी टोटल स्टेट के साथ जुड़ पाएगा.
                                                                                                                                      रवींद्रनाथ (रांची)

जनवरी माह की आवरण कथा 'बदल देगा जीवन वर्ष 2011 में वर्तमान वर्ष में सरकार के लक्ष्यों की बात लिखी गई है जिसमें स्वास्थ्य, शिक्षा, इन्फ्रास्ट्रक्चर, इकॉनोमी और तकनीक क्षेत्र विशेष हैं. जहां तक स्वास्थ्य की बात है आज देश में लाखों लोग केवल धनाभाव के चलते मौत का ग्रास बने रहें हैं. राजकीय अस्पतालों की व्यवस्था ऐसी घृणित है कि लोग अस्पतालों में कैदियों की जीवन जी रहें हैं. देश के राजकीय अस्पतालों में सीटी स्कैन, एक्स-रे व हिमोडायलिसिस जैसी आवश्यक मशीने या तो हैं ही नहीं और अगर किसी अस्पताल में है भी तो वे सफेद हाथी साबित हो रही हैं. इसी कारण आम आदमी मोटे ब्याज पर साहूकारों से कर्जा लेकर अपने परिवारजनों का ईलाज निजी अस्पतालों में करवाने को मजबूर हैं. शायद वित्त वर्ष में अस्पतालों की दशा-दिशा बदल जाए.
बात जहां शिक्षा की आती है. आंकड़ों के मुताबिक देश के करोड़ों बच्चे केवल इसलिए विद्यालयों में नहीं जा पाते कि उनके घर में पैसा नहीं है. माना कि आज सरकारी नीतियों केे अनुसार न के बराबर पैसों में सरकारी विद्यालयों में शिक्षा दी जा रही है. लेकिन देश के तकदीरदार कभी राजकीय पाठशालाओं में जा कर वहां की व्यवस्था देखेंगे तो शर्म से सर झुक जाएगा. सरकारी विद्यालयों में शिक्षा प्राप्त करने आए बच्चों से अध्यापक अपने निजी काम करवाते हैं. गांवों में मुफ्त दुध-दही, घी, अनाज इत्यादी वसूलते हैं. इस परिस्थति में निजी विद्यालयों से सरकारी विद्यालयों का खर्चा ज्यादा मालूम पड़ता है.
 देश में आज लाखों परिवार बिना छत के खुले आसमान तले सोने को मजबूर हैं. क्या भारत सरकार इस ओर भी ध्यान प्रदान करेगी. इसी आशा से आज भारत का हर गरीब सरकार की तरफ आंखें लगाए बैठा है.

हिंदी साहित्य के लिए पंजाबी के दूत

अर्जुन शर्मा

बरनाला (पंजाब) में वरिष्ठ साहित्यकार स्व. रामसरुप अणखी की पहली बरसी के अवसर पर आयोजित समारोह में उनकी रचनाओं का विमोचन करते वरिष्ठ साहित्याकर और अन्य
 ख्यातिप्राप्त साहित्यकार रामसरूप अणखी अलग ही किस्म की शख्सियत थे। जमीन से जुड़ा साहित्य रचने के कायल इस पंजाबी लेखक की सादगी और फक्कड़ मिजाजी का असर उनके साथियों, प्रशंसकों और परिजनों पर बाखूबी पड़ा। इसीलिए तो उन्होंने स्वर्गीय अणखी की पहली बरसी भी कुछ उसी अंदाज में मनाई। इस मौके पर कोई धार्मिक-पारंपरिक श्रद्धांजलि सभा की बजाए उनके गृह-क्षेत्र बरनाला के शक्ति कला मंदिर में एक साहित्यिक समागम रखा गया।
जिसमें अणखी के अमूल्य साहित्यिक योगदान को याद करते हुए उनकी विरासत को सहेजने का संकल्प लिया गया। उनकी विलक्षण प्रतिभा का आंकलन करते हुए वक्ताओं ने लब्बोलुआब निकाला कि वाकई अणखी हिंदी साहित्य के लिए पंजाबी के दूत समान थे। यहां उल्लेखनीय है कि अणखी उन चुनिंदा पंजाबी लेखकों में शुमार हैं, जिनकी कई रचनाएं पाठकों के बीच इतनी लोकप्रिय हुई कि उनके हिंदी अनुवाद भी प्रकाशित करने पड़े।
इस साहित्यिक समारोह की अध्यक्षता संयुक्त रुप से नामवर लेखक-इतिहासविद् मनमोहन बावा, पंजाबी ट्रिब्यून के मुख्य संपादक वरिंदर वालिया, यूनिस्टार पब्लिकेशन्स चंडीगढ़ के हरीश जैन, प्रसिद्ध नाटककार-लेखक प्रो. अजमेर औलख और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के प्रो. अजय बसारिया ने की। इस दौरान अणखी की तीन चर्चित पुस्तकों का भी विमोचन किया गया। इनमें बलदेव बधान द्वारा संपादित और एनबीटी इंडिया द्वारा प्रकाशित ५९ कहानी के संग्रह च्रामसरुप अणखी दियां चौंणविया कहानियांज् के अलावा यूनिस्टार पब्लिकेशंस चंडीगढ़ द्वारा प्रकाशित उनका अंतिम व अधूरा उपन्यास पिंड दी मिट्टी और कुलदीप मान द्वारा संपादित उनके दोस्त व सह-लेखक को समर्पित अपनी मिट्टी दा रूख शामिल रहीं। यह रचनात्मक कार्य कर वास्तव में अणखी के सह-लेखकों, प्रशंसकों और परिजनों ने उनकी साहित्यिक विरासत को सहजने का व्यवहारिक-संकल्प लिया।
इस दौरान श्री बावा ने अपने संबोधन में जज्बाती होकर यादों के पन्ने पलटते हुए कहा कि अणखी जैसा साहित्यकार कोई बिरला ही होगा, उस शख्स ने हमेशा जमीन से जुड़े और नवोदित लेखकों को प्रोत्साहित किया। बावा की यह टिप्पणी वास्तव में सामायिक लगी, जब इस दौर में हर कथित वरिष्ठ लेखक अपने समकक्ष किसी को नहीं देखना चाहता है। उन्होंने खुलासा किया कि शायद अणखी ही मालवा से ताल्लुक रखने वाले पहले साहित्यकार होंगे, जो खुद तो संघर्ष के दौर में गुमनाम रहे, लेकिन नामवर हुए तो उन्होंने अपने इलाके के जमीनी-दर्द को कलम के जरिए साहित्यिक-पटल पर बाखूबी उकेरा। श्री वालिया तो इतने भावुक हुए कि उन्होंने यहां तक कह डाला कि कुल मिलाकर साहित्यिक-भाषा में अणखी और मालवा दोनों ही एक सिक्के के दो पहलू हैं। दरअसल मालवा के छोटे किसानों ने जो दिक्कतें उठाई, उनको अणखी ने ही बेहतर तरीके से समझा और कलम की जुबान से बाकायदा उनको एक उपन्यास की शक्ल दी। प्रो. औलख ने अपने तजुर्बे को बुनियाद बनाकर दोटूक कहा कि समाज को दिमाग में रखकर कलम चलाने वाले अणखी जैसे लेखक चुनिंदा ही हुए हैं। उन्होंने समाज के लिए साहित्य रचा, इसीलिए आज समाज में उनकी पहचान है।
डा. तेजवंत मान ने मालवा की विरासत को अपने जज्बातों में समेटते हुए बिना लाग-लपेट कहा कि अणखी अपनी रचनाओं में मलवाई भाषा को पूरी अहमियत देते थे और मलवाई भाषा हकीकत में पंजाबी साहित्य में अपना सम्मानजनक स्थान रखती है। यह अलग बात है कि मालवा की साहित्यिक विरासत की अहमियत को आम लोगों तक पहुंचाने का काम करने वाले अणखी सरीखे और लोग सामने नहीं आए। सीधी बात, इस साहित्यिक समारोह से चूंकि कोई राजनीतिक लाभ सीधे नहीं होने वाला था, लिहाजा यहां पर कोई सरकारी घोषणा और झूठे वादे नहीं किए गए। बहरहाल अणखी की साहित्यिक विरासत को आगे बढ़ाने के लिए संकल्प लेने वाले प्रो. कुलवंत सिंह, सुखमिंदर भट्ठल, हरीश जैन, प्रो. नव संगीत, डा. तारा सिंह, डा. सुरजीत सिंह, डा. बलकार सिंह, डा. जगीर जगतार, हरभजन बाजवा सहित तमाम साहित्यप्रेमी इस मौके पर मौजूद थे। इस समागम में अपने जज्बात तो बहुत लोग जाहिर करना चाहते थे, लेकिन कहीं तो समापन करना ही था। लिहाजा सबका आभार जताते हुए स्व. अणखी के बेटे डा. क्रांति पाल ने रस्मी तौर पर अगले साल फिर इसी तरह गर्मजोशी के साथ मिलने का वादा किया।
इस समागम की सबसे बड़ी खासियत यही रही कि यहां पर कोई राजनीतिक घोषणा नहीं की गई, जो अर्से तक पूरी ना हो सके। अणखी के बेटे डा. क्रांति पाल ने सीधे तौर पर कहा कि पंजाबी यूनिवर्सिटी पटियाला में पंजाबी एमए में अव्वल आने वाले छात्र को रामसरूप अणखी अवार्ड दिया जाएगा। बेशक यह अवार्ड महज उस विजेता को ११ हजार रुपये का आर्थिक रुप से फायदा पहुंचाएगा, लेकिन साहित्यिक जगत में यह मालवा, पंजाब और देश के लिए एक गौरवपूर्ण सम्मान होगा। यहां उल्लेखनीय है कि स्व. अणखी ने पंजाब में बदहाली का शिकार छोटे किसानों-नशे की जकड़ में आती युवा पीढ़ी और आत्महत्या करते किसानों-नौजवानों को लेकर बड़ी शिद्दत से अपनी कलम चलाई। जिसका नतीजा यह है कि उनकी बरसी पर आज नामवर लोगों ने अपने श्रद्धासुमन अर्पित किए। मंच का संचालन कर रहे साहित्य-प्रेमी अमरदीप गिल ने भावुक होकर स्व. अणखी को श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए अंत में बस यही कहा कि अगर सौभागय से अगली बार इस अवसर पर मुझे मंच संचालन की जिम्मेदारी सौंपी गई तो यही मेरे लिए सबसे बड़ा पुरस्कार होगा।

सतरंगी किरणों की अटखेलियों वाला शहर 'दार्जिलिंग'

पश्चिम बंगाल के इकलौते पर्वतीय पर्यटन स्थल दार्जिलिंग की गिनती विश्व के सबसे खूबसूरत पर्वतीय पर्यटन स्थलों में की जाती है। अपने खूबसूरती के कारण ही इसे पहाडिय़ों की रानी कहा जाता है। दार्जिलिंग का नाम तिब्बती भाषा के दो शब्दों दोर्जी और लिंग को जोड़कर बना है। दोर्जे का मतलब होता है इंद्र का वज्र और लिंग का स्थान यानी वह स्थान जहां इंद्र का वज्र गिरा हो। इस शहर के आसपास देखने लायक कई मशहूर स्थान हैं।
टाइगर हिल

शहर से 13 किमी दूर 8482 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। टाइगर हिल सूर्योदय के अद्भुत नजारे के लिए पूरी दुनिया में मशहूर है। यहां कंचनजंगा की पहाडिय़ों के पीछे से सूर्योदय का सतरंगी नजारा देखने के लिए रोजाना देश-विदेश के हजारों पर्यटक जुटते हैं। यहां से मौसम साफ रहने पर विश्व की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट भी नजर आती है।
बतसिया लूप

यह इंजीनियरिंग का एक बेहतरीन नमूना है। सिलीगुड़ी से दार्जिलिंग के बीच चलने वाली ट्वाय ट्रेन यहां वृत्ताकार घूमती है और यात्रियों को 180 डिग्री के विस्तार में पहाडिय़ां नजर आती हैं। यह शहर से पांच किमी दूर है। यहां एक शहीद स्मारक भी बना है।
हिमालयन माउंटेनियरिंग इंस्टीटयूट

शहर में बने इस संस्थान में देश-विदेश के छात्र पर्वतारोहण का प्रशिक्षण लेने आते हैं। शहर के आस-पास की पहाडिय़ां पर्वतारोहण के लिए आदर्श हैं।
संजय गांधी जैविक उद्यान

इस उद्यान में रेड पांडा व ब्लैक बीयर समेत कई दुर्लभ प्रजाति के जानवर व पक्षी हैं। इसके अलावा लायड्स बोटेनिकल गार्डेन में तरह-तरह की वनस्पतियां देखी जा सकती हैं।
रंगीन वैली पैसेंजर रोपवे

शहर से तीन किमी दूर स्थित यह रोपवे देश का पहला यात्री रोपवे है। शहर के चौकबाजार से टैक्सी से यहां तक पहुंच कर रोपवे की सवारी का आनंद उठाया जा सकता है।
कैसे जाएं

दार्जिलिंग का सबसे नजदीकी एअरपोर्ट बागडोगरा में है जो कोलकाता, दिल्ली, गुवाहाटी व पटना से विमान सेवा से जुड़ा है। वहां से दार्जिलिंग (80 किमी) तक पहुंचने में लगभग तीन घंटे का समय लगता है। सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन सिलीगुड़ी के पास न्यू जलपाईगुड़ी है। वहां से भी तीन घंटे में दार्जिलिंग पहुंचा जा सकता है। दिल्ली, कोलकाता, मुंबई व देश के तमाम प्रमुख शहरों से यहां ट्रेनें आती हैं।
कब जाएं

दार्जिलिंग की सैर के लिए सबसे अच्छा सीजन है मार्च से मध्य जून और सितंबर से दिसंबर।
तापमान

गर्मी में 8 से 14 डिग्री व सर्दी में शून्य से छह डिग्री तक। यहां हिंदी, नेपाली, अंग्रेजी व तिब्बती भाषाएं बोली जाती हैं।

कहां हो प्याज देवता [व्यंग्य]

राजकुमार साहू

देश में अभी महंगाई चरम पर है और प्याज है कि लोगों के साथ-साथ सरकार को भी खून के आंसू रूला रहा है। जब से प्याज की दर में इजाफा हुआ है, तब से उसका दर्शन दुर्लभ हो गया है। पिछलों दिनों जहां देखो वहां, हर किराने की दुकान में प्याज मिल जाता था, मगर अभी हालात ऐसे हो गए हैं कि बाजार में प्याज कहीं मिल जाए तो उस व्यक्ति से बड़ा भाग्यशाली कोई नहीं। एक दिन पहले की बात है, मैं प्याज लेने के लिए दुकान गया, वहां प्याज नहीं मिलने से दूसरी दुकान की ओर कूच कर गया। मैं एक दुकान से दूसरी दुकान पहुंचा, इस तरह प्याज देवता को ढूंढते कई घंटे बीत गए और देखते ही देखते पूरा शहर घूम लिया।
इसी बीच मैं सोचने लगा कि महंगाई के इस दौर में प्याज की भी महिमा बढ़ गई है और वह भी किसी भगवान के सामान हो गया है। वैसे भगवान के दर्शन आसपास की गलियों के मंदिरों में रोजाना कहीं भी हो जा रहे हैं, लेकिन प्याज को करीब से देखे हफ्तों हो गया है। देश की जनता प्याज का नाम लेकर ही खुश है, क्योंकि उसकी कीमत के आगे किसी की कीमत कहां रह गई है। प्याज इन दिनों जिस तरह से लाल हुआ है, उसके बाद तो राजनीति क्षेत्र के एक धड़े में हरियाली छा गई है। विपक्षी पार्टियों के नेता सत्ता की चाहत में प्याज भगवान को याद किए बगैर भला कैसे रह सकते हैं, क्योंकि वे यह तो जानते हैं कि पहले भी प्याज, सरकार गिरा चुका है। तभी तो अब प्याज को खाने के बजाय उसकी पूजा की जा रही है। करे भी क्यों न, सत्ता की कहानी बड़ी निराली है, उसकी खुशबू के आगे कहां कोई टिक सकता है।
इस बार जब प्याज के दाम बढ़े तो अभी से ही जैसे सरकार की कुर्सी का पाया हिलने लगा है। अब सरकार के नुमाइंदे हैं कि प्याज देवता को खोजने निकल पड़े हैं और गोदाम को मंदिर बनाकर रखे जमाखोरों पर उनकी टेढ़ी नजर पड़ गई है। महंगाई की मार से चहुंओर हाहाकार मचा है और प्याज का जलवा बना हुआ है। प्याज भी खुश है कि कई बरसों में तो ऐसा मौका आता है, जब सरकार को उसके सामने नतमस्तक होना पड़ता है, नहीं तो मजाल है कि कोई सरकार को नतमस्तक कर पाए। देश में कितने भी बड़े से बड़े घोटाले व घपले हो जाएं, लेकिन सरकार को कैसे कोई डिगा सकता है। यही कारण है कि कई लोग प्याज के दर्शन लाभ लेकर उसे किसी भगवान से कम नहीं मान रहे हैं। यहां तो ठीक वैसा ही हो गया है, जैसे कोई व्यक्ति धनवान बन जाने के बाद खुद को भगवान से उपर समझने लगता है, यही हालात प्याज के भी हो गए हैं। है तो वह, महज छोटी सी खाने की चीज, मगर आज उसे हर कोई खोज रहा है और पूछ रहा है कि कहां हो प्याज देवता ? अब मैं भी सोचने लगा हूं कि प्याज देवता का एक मंदिर बनवा ही लूं।

वरिष्‍ठ नागरिकों की देखरेख

विद्या भूषण अरोड़ा
हम एक ऐसी दुनिया में रह रहे हैं जहां वृद्ध लोगों की संख्‍या बढ़ती जा रही है। पिछले कुछ वर्षों से दुनिया की आबादी में बहुत बड़ा बदलाव देखा जा रहा है। दुनिया में उच्‍च जन्‍म दर एवं उच्‍च मृत्‍यु दर के स्‍थान पर अब निम्‍न जन्‍म दर एवं निम्‍न मृत्‍यु दर की प्रवृत्‍ति देखी जा रही है जिसका परिणाम वृद्धजनों की संख्‍या और अनुपात में बहुत वृद्धि के रूप में सामने आया है। संयुक्‍त राष्‍ट्र की रिपोर्ट के अनुसार सभ्‍यता के इतिहास में ऐसी तीव्र, विशाल और सर्वव्‍यापी वृद्धि पहले कभी नहीं देखी गई। विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य संगठन ने अनुमान व्‍यक्‍त किया है कि दुनिया भर में 60 वर्ष की उम्र के करीब 60 करोड़ व्‍यक्‍ति हैं तथा 2015 तक यह संख्‍या दुगुनी हो जाएगी और 2050 तक 60 वर्ष के व्‍यक्‍तियों की संख्‍या वस्‍तुत: दो अरब हो जाएगी। इनमें से ज्‍यादातर लोग विकासशील जगत के होंगे।
संयुक्‍त राष्‍ट्र सचिवालय, आर्थिक एवं सामाजिक मामले विभाग के आबादी प्रभाग के अनुसार वर्तमान जनसांख्यिकीय क्रांति आने वाली सदियों तक जारी रहने की संभावना है। इसकी प्रमुख विशेषताएं इस प्रकार हैं- हर दस व्‍यक्तियों में से एक व्‍यक्ति अब 60 वर्ष या उससे अधिक उम्र का है, वर्ष 2050 तक हर पांच में से एक व्‍यक्ति 60 वर्ष या उससे अधिक उम्र का हो जाएगा और 2150 तक हर तीन व्‍यक्तियों में से एक 60 वर्ष या उससे अधिक उम्र का होगा। इसी प्रकार वृद्ध आबादी और भी बूढ़ी होती जा रही है। वृद्धों की आबादी में सबसे बूढ़े (80 वर्ष या उससे अधिक) व्‍यक्तियों का वर्ग बड़ी तेजी से बढ़ता जा रहा है। फिलहाल इनकी संख्‍या 60 से अधिक आयु वर्ग का 13 प्रतिशत है तथा 2050 तक यह बढ़कर 20 प्रतिशत हो जाएगी। शतायु व्‍यक्तियों( 100 वर्ष या उससे अधिक उम्र के व्‍यक्ति) की संख्‍या 2005 में 265,000 से बढ़कर 2050 तक 37 लाख होने अर्थात इनकी आबादी में लगभग 14 गुणा वृद्धि होने की संभावना है।
इस तरह की जनसांख्यिकीय हालत नीतिगत स्‍तर पर नए सिरे से विचार की आवश्‍यकता पर बल देती है ताकि वैज्ञानिकों को इस बदलते परिदृश्‍य के लिए सुसज्जित किया जा सके जहां न सिर्फ वृद्धजनों की देखरेख महत्‍वपूर्ण होगी बल्कि वरिष्‍ठ नागरिकों की क्षमताओं का पूरी तरह इस्‍तेमाल करने के तरीके तलाशने पर भी बराबर बल दिया जाना चाहिए। शायद वह समय आ गया है जब हमें वृद्ध नागरिकों के बारे में अपने दृष्टिकोण और नज़रिए में बदलाव करना बहुत आवश्‍यक हो गया है। इसके अतिरिक्‍त उनकी प्रत्‍यक्ष सीमाओं के बार में अपनी धारणाओं में भी बदलाव करने का समय आ गया है। वैज्ञानिकों को वृद्धजनों के अनुभव और निष्क्रिय क्षमताओं का लाभ उठाना सीखना चाहिए तथा इस नई चुनौती का सामना करने के लिए ज़रूरी ढांचागत और अन्‍य आवश्‍यक बदलाव भी करने चाहिए।
जैसा कि संयुक्‍त राष्‍ट्र के दस्‍तावेज़ वृद्ध समाज के निहितार्थ के खंड नीतिगत विमर्श में टिप्‍पणी की गई है – "विशिष्‍टता का सम्‍मान वृद्ध नागरिकों के योगदान को समाज द्वारा आत्‍मसात करने के महत्‍व को प्रकट करता है। ज्ञान, बुद्धि और अकसर आयु बढऩे के साथ-साथ बढ़ता है। वह आंतरिक जागरूकता का हिस्‍सा है जिसका व्‍यापार नहीं किया जा सकता, जिसे बेचा नहीं जा सकता या चुराया नहीं जा सकता। लेकिन समाज के हर क्षेत्र में हमारी सृजनात्‍मक क्षमता बढ़ाने के लिए इसका सक्रिय और विस्‍तृत इस्‍तेमाल किया जाना चाहिए।"हर साल पहली अक्‍तूबर का दिन दुनिया भर में अंतर्राष्‍ट्रीय वृद्धजन दिवस के रूप में मनाया जाता है। संयुक्‍त राष्‍ट्र ने वृद्ध व्‍यक्‍तियों के लिए संयुक्‍त राष्‍ट्र अंतर्राष्‍ट्रीय दिवस के लिए कुछ उद्देश्‍य निर्धारित किए हैं जिनमें संयुक्‍त राष्‍ट्र में वैश्‍विक वृद्ध कार्यक्रम और कार्यनीतियों की वर्तमान अवस्‍था से निपटना, वृद्धावस्‍था के संदर्भ में सहस्राब्‍दी विकास लक्ष्‍यों की समीक्षा करना तथा नूतन पहल की पहचान करना शामिल है जो वृद्धावस्‍था के बारे में वैश्‍विक एजेंडे को आगे बढ़ा रहे हैं। यह संयुक्‍त राष्‍ट्र की गतिविधियों में वृद्धावस्‍था को और व्‍यापक रूप में शामिल करने की आवश्‍यकता पर बल देता है।
भारत में वृद्धजनों की आबादी
हमारे देश में वृद्ध लोगों की आबादी स्‍थायी रूप से बढ़ती जा रही है तथा सामान्‍य आबादी की तुलना में इसका ज्‍यादा तेजी से बढऩे का अनुमान है। वरिष्‍ठ नागरिकों की आबादी बढ़कर 2011 तक करीब 10 करोड़, 2016 तक 12 करोड़ और 2026 तक 17 करोड़ से अधिक होने का अनुमान है।
2001 की जनगणना के अनुसार वरिष्‍ठ नागरिकों द60 +½ की कुल आबादी 7 करोड़ 70 लाख थी जिसमें से पुरुषों की आबादी 3 करोड़ 80 लाख और महिलाओं की आबादी 3 करोड़ 90 लाख थी। कुल आबादी में वरिष्‍ठ नागरिकों की औसत संख्‍या 7.5 प्रतिशत है। हिमाचल प्रदेश, पंजाब, उत्‍तराखंड, हरियाणा, ओड़ीशा, महाराष्‍ट्र, आन्‍ध्र प्रदेश, कर्नाटक, गोवा, केरल, तमिलनाडु और पुडुचेरी में वरिष्‍ठ नागरिकों की संख्‍या राष्‍ट्रीय औसत (7.5 प्रतिशत) से अधिक है।
वर्ष 1991 में कुल आबादी के 6.8 प्रतिशत लोगों की आयु 60 वर्ष या उससे अधिक थी। यह संख्‍या 2026 में 12.4 प्रतिशत होने का अनुमान है। पिछले कुछ वर्षों से स्‍वास्‍थ्‍य देखरेख सुविधाओं में सुधार भारत में वरिष्‍ठ नागरिकों की आबादी का अनुपात निरंतर बढऩे का मुख्‍य कारण है। वे न सिर्फ लम्‍बा जीवन जिएं बल्कि सुरक्षित, प्रतिष्ठित और उत्‍पादक जीवन जिएं यह सुनिश्चित करना एक प्रमुख चुनौती है। वरिष्‍ठ नागरिकों की कुछ मुख्‍य समस्‍याओं में सुरक्षा, स्‍वास्‍थ्‍य देखरेख एवं रखरखाव की ज़रूरत शामिल हैं जिन पर स्‍थायी रूप से ध्‍यान देने की ज़रूरत है।
राष्‍ट्रीय वृद्धजन नीति 1999 संशोधनाधीन
भारत सरकार ने वृद्धजनों का कल्‍याण सुनि‍श्चित करने की प्रतिबद्धता को और पुष्‍ट करने के लिए जनवरी, 1999 में पहली राष्‍ट्रीय वृद्धजन नीति की घोषणा की थी। इस नीति में वृद्धजनों की वित्‍तीय एवं खाद्य सुरक्षा, स्‍वास्‍थ्‍य देखरेख, आवास तथा अन्‍य ज़रूरतें, विकास में बराबर की हिस्‍सेदारी, दुर्व्‍यवहार एवं शोषण से सुरक्षा तथा उनके जीवन स्‍तर में सुधार लाने के लिए सेवाओं की उपलब्‍धता सुनिश्चित करने के लिए राज्‍य की सहायता पर बल दिया गया है।
इस नीति की घोषणा को दस वर्ष हो चुके हैं। देश में वरिष्‍ठ नागरिकों की बदलती जनांकिकी के मद्देनजऱ सामाजिक न्‍याय एवं अधिकारिता मंत्रालय ने जनवरी 2010 में समिति गठित की। सामान्‍य तौर पर वरिष्‍ठ नागरिकों संबंधी विविध मसलों की वर्तमान स्थिति तथा विशेष रूप से राष्‍ट्रीय वृद्धजन नीति, 1999 के कार्यान्‍वयन का आकलन करने के लिए यह समिति गठित की गई है। समिति नई राष्‍ट्रीय वृद्धजन नीति के लिए मसौदे पर कार्य कर रही है। समीक्षा समि‍ति की अब तक चंडीगढ़, चेन्‍नई, मुम्‍बई, गुवाहाटी और भुबनेश्‍वर में पांच बैठक तथा पांच क्षेत्रीय बैठक हो चुकी हैं। आशा है कि समीक्षा समिति दिसम्‍बर के आखिर तक अपनी सिफारिशें सौंप देगी।
माता-पिता एवं वरिष्‍ठ नागरिकों का अनुरक्षण एवं कल्‍याण अधिनियम, 2007
माता-पिता एवं वरिष्‍ठ नागरिकों के लिए ज़रूरत आधारित अनुरक्षण तथा उनका कल्‍याण सुनिश्चित करने के लिए दिसम्‍बर 2007 में माता-पिता एवं वरिष्‍ठ नागरिकों का अनुरक्षण एवं कल्‍याण अधिनियम, 2007 बनाया गया। यह अधिनियम अन्‍य बातों के साथ, न्‍यायाधिकरणों के जरिए बाध्‍यकारी एवं न्‍यायोचित बनाकर बच्‍चों/रिश्‍तेदारों द्वारा माता-पिता/वरिष्‍ठ नागरिकों का अनुरक्षण, रिश्‍तेदारों द्वारा अनदेखी के मामले में वरिष्‍ठ नागरिकों द्वारा संपत्ति के अंतरण के निरसन, वरिष्‍ठ नागरिकों के परित्‍याग के लिए जुर्माने के प्रावधान तथा वरिष्‍ठ नागरिकों के जीवन एवं संपत्ति की सुरक्षा जैसा संरक्षण उपलब्‍ध कराता है।
यह अधिनियम अलग-अलग राज्‍य/केन्‍द्र शासित प्रदेश सरकार द्वारा अधिसूचना के जरिए राज्‍य में प्रभावी होता है। फिलहाल यह अधिनियम 22 राज्‍यों और सभी केन्‍द्र शासित प्रदेशों में अधिसूचित हो गया है। इस अधिनियम को अधिसूचित करने वाले राज्‍यों को अधिनियम के विविध प्रावधानों के प्रभावी कार्यान्‍वयन के लिए और उपाय करने की भी ज़रूरत है। इन उपायों में नियम बनाना, अनुरक्षण अधिकारी नियुक्‍त करना और अनुरक्षण एवं अपील न्‍यायाधिकरण इत्‍यादि गठित करना शामिल है।
अब तक, नौ राज्‍यों छत्‍तीसगढ़, गुजरात, केरल, मध्‍य प्रदेश, ओड़ीशा, तमिलनाडु, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल ने उल्‍लेखित सभी आवश्‍यक कदम उठाए हैं। केन्‍द्र सरकार इस संबंध में जल्‍दी से जल्‍दी आवश्‍यक कार्रवाई करने के लिए शेष राज्‍यों/केन्‍द्र शासित प्रदेशों को निरंतर स्‍मरण करा रही है।
एकीकृत वृद्धजन कार्यक्रम
मंत्रालय 1992 से एकीकृत वृद्धजन कार्यक्रम नामक केन्‍द्रीय क्षेत्र की योजना कार्यान्वित कर रहा है। इस योजना का उद्देश्‍य वरिष्‍ठ नागरिकों की बुनियादी ज़रूरतें, विशेष रूप से आवास, भोजन एवं अभावग्रस्‍त वृद्धजनों की स्‍वास्‍थ्‍य देखरेख जैसी आवश्‍यकता पूरी करके उनके जीवन स्‍तर में सुधार करना है। इस योजना के तहत, वृद्धाश्रम, डे केयर केन्‍द्र और सचल चिकित्‍सा इकाई चलाने एवं उनके अनुरक्षण के लिए स्‍वयं सेवी संगठनों को परियोजना लागत की 90 प्रतिशत तक सहायता उपलब्‍ध कराई जाती है। वर्ष 2009-10 के दौरान, 345 वृद्धाश्रम, 184 डे केयर केन्‍द्र और 27 सचल चिकित्‍सा इकाई चलाने के लिए इस योजना के तहत 360 स्‍वयं सेवी संगठनों की सहायता की गई। औसतन करीब 35,000 लाभार्थी हर साल इस योजना के दायरे में लाए जार रहे हैं।

Wednesday, March 16, 2011

माया के जन्‍मदिन पर कटा 55 किलो का मायावी केक

इटावा में बसपा समर्थकों ने माननीय मुख्यमंत्री मायावती का 55वां जन्मदिन धूमधाम से मनाया। इस अवसर पर 55 किलो का केक काटकर 'बहन तुम जियो हजारो साल, साल के दिन हो पचास हजारÓ के गगन भेदी नारे लगाए गए। इस दौरान मुख्य-अतिथि लखना विधायक भीमराव अंम्बेडकर ने मिशन 2014 को लक्ष्य बनाकर मायावती को प्रधनमंत्री की कुर्सी पर पहुँचाने का संकल्प लिया।
विधायक ने मायावती की दीर्घायु की कामना करते हुए कहा कि मुख्यमंत्री ने गरीबों के हित में पहली बार जनहित सेवा गारन्टी कानून लागू करके निराश्रितों, मजलूमों को बेहतरीन तौफा दिया है। उन्होनें बताया कि इस कानून के लागू होने पर अधिकारी द्वारा एक बार से अधिक बार बुलाये जाने की शिकायत प्रार्थी द्वारा किये जाने पर सम्बन्धित अधिकारी के वेतन से 250.00 रू0 प्रतिदिन के हिसाब से काटा जायेगा।
इटावा सदर विधायक महेन्द्र सिंह राजपूत ने जिले के रूके हुए विकास कार्य कराने तथा हाल ही में अबमुक्त हुए साढ़े तीस करोड़ की योजनाओं की स्वीकृति मिलने की बात कही। उन्होनें विकास कार्यों की जानकारी गाँव से निकल कर खेत खलिहान तक पहुँचाने की अपील करके मुख्यमंत्री मायावती की दीर्घायु की कामना की।
जिला प्रभारी लाखन सिंह जाटव, जसकरन सिंह कठेरिया, पूर्व विधायक रवीन्द्र सिंह चौहान, ब्लाक प्रमुख महेवा मनीषा, सविता आदि ने मुख्यमंत्री मायावती को न्याय की देवी की संज्ञा देकर विकास कार्यों की जानकारी दी।

लालची इंसान की नजर खुदा की जमीन पर!

उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले में एक ऐसा भंडाफोड़ हुआ है जिससे पता चलता है भले ही इंसान रात-दिन खुदा या भगवान की इबादत और प्रार्थना के गीत गाता हो लेकिन अपना उल्लू सीधा करने के लिए वह खुदा को भी बखूबी इस्तेमाल करता है।
भारतीय संविधान के मुताबिक वक्फ़ संपत्ति को सीधे-सीधे खुदा की संपत्ति माना जाता है। लेकिन अब खुदा की संपत्ति पर खुदा के कुछ चालाक बंदों ने ऐसी भूखी नजर जमा दी है कि उसे पूरे का पूरा निगल कर अपने नाम करने में तुले हैं। हालांकि सुप्रीम कोर्ट  कई मर्तबा इस भूमि के संरक्षण के आदेश दे चुका है, इसके बावजूद मुजफ़्फरनगर में वक्फ़ संपत्ति के लगातार बैनामे हो रहे हैं।
वक्फ़ की करीब साढ़े तीन हजार बीघा जमीन को आधिकारियों और भूमाफियाओं ने मिलकर नीलाम कर दिया है। वक्फ़ की संपत्ति में खातोली की शुगर मिल एवं रेलवे  स्टेशन भी शामिल है। नियम के मुताबिक जो संपत्ति एक बार वक्फ़ हो जाती है, उसका मालिक सीधे-सीधे अल्लाह हो जाता है! उस संपत्ति को न तो बेचा जा सकता है और न ही उसके स्वरूप में परिवर्तन हो सकता है। लेकिन यहां भारतीय संविधान की खुली धज्जियां उड़ाते हुए ऐसा कारनामा किया गया है।
वक्फ़ मामलों के अधिवक्ता महफूज खां राठौर का कहना है कि वक्फ़ संपत्तियों के बैनामे नहीं हो सकते, लेकिन यहां 250 से अधिक ऐसे मामले प्रकाश में आए हैं। ये मामले अदालत में विचाराधीन हैं। उनका कहना है कि ये बैनामे अफसरों और भूमाफियाओं की मिलीभगत से हुए। वक्फ बोर्ड के अधिवक्ता ए.डी.एम.के. राठौर और वक्फ अलमदार हुसैन के मुतवल्ली अली परवेज जैदी का कहना है कि ये संपत्ति उनके बुजुर्गो ने वक्फ की थी, जिस पर आजादी के बाद से लगातार कब्जे होते आ रहे हैं और इस बाबत वे मुजफ्फरनगर से लेकर इलाहाबाद उच्च न्यायालय तक में मुकदमे लड़ रहे हैं।
गौरतलब है कि शेखपुरा गांव को वर्ष 1916 में वक्फ़ करार  दिया गया था, जहां लगभग चार हजार बीघा कीमती जमीन मौजूद थी। लेकिन वफ्फ़ हुई संपत्ति पर भूमाफियाओं की पहले से ही तीखी नजर थी। यहां की जानसठ तहसील के आधिकारियों ने भूमाफियाओं से मिलीभगत करके इस पूरे गांव को बेच डाला और भूमाफियाओं के नाम बैनामे करके दाखिल खारिज भी करा दिया गया।
बसपा नेता एवं उत्तर प्रदेश सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड के सदस्य शाह नवाज राना का कहना है कि इस मामले पर वक्फ बोर्ड गंभीर है। जिला स्तर पर अफसरों को कार्रवाई के निर्देश दिए गए हैं। उन्होंने कहा कि दोषी लोगों को बक्शा नहीं जाएगा, बोर्ड की अगली बैठक में इस मामले को उठाया जाएगा।

आजम खां पर चलेगा देश-द्रोह का मुकदमा

अदालत ने समाजवादी पार्टी के नेता आजम खां के कश्मीर पर दिए गए विवादास्पद बयान को गंभीरता से लेते हुए उन पर देश-द्रोह का मुकदमा दर्ज करने का आदेश दिया है।
जिला अदालत ने सदर कोतवाली पुलिस को तीन दिन के अंदर धारा 124 (क) के तहत मुकदमा दर्ज कर रिपोर्ट देने के निर्देश दिए हैं।
तीन जनवरी को बजरंग दल के संयोजक उज्ज्वल गुप्ता ने अदालत में एक प्रार्थना पत्र दाखिल किया था जिसमें उन्होंने समाजवादी पार्टी के नेता आजम खां के कश्मीर पर दिए गए बयान को देश-द्रोह का काम बताया था।
सीजीएम पवन प्रताप सिंह ने दोनो पक्षों को सुनने के बाद कोतवाली पुलिस को तीन के अंदर रिपोर्ट देने का आदेश दिया।
गौरतलब है कि आजम खां ने 21 दिसम्बर 2010 को बदायूं मे मीडिया से रुबरु होते हुए कहा था, 'यूपीए सरकार में सिर्फ एक मुस्लिम कैबिनेट मंत्री गुलाम नबी आजाद हैं, जो उस कश्मीर के रहने वाले हैं जिसका भूगोल अभी तक तय नहीं है कि वह भारत का हिस्सा है या पाकिस्तान का।'


सिकुड़ता सुंदरबन, फैलती चिंताएँ

 संदीप सिसोदिया

अंतिम आश्रयविलुप्ति की कगार पर खड़े शानदार रॉयल बंगाल टाइगर के अंतिम शरण स्थल सुंदरवन को अपने विशिष्ट प्राकृतिक परिवास और प्रजातियों के लिए विश्व धरोहर का दर्जा प्राप्त है।
इस क्षेत्र में बसे बासंती, कुल्ताली, पाथारप्रतिमा और सागर जैसे छितरे हुए द्वीपों को जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा खतरा है। अत्यधिक गरीब तथा पिछडे इन इलाकों में हालत वैसे ही बहुत खराब हैं ऊपर से मौसम की मार यहाँ के रहवासियों के जीवन-यापन का ही संकट पैदा कर देगी।
पानी से घिरे इन छोटे द्वीपों पर रहने वाले जैसे-तैसे जंगल से उपलब्ध अल्प-संसाधनों से जीविका चलाते हैं। बढ़ता पानी इन द्वीपों की मिट्टी काट इन्हें डूबाता जा रहा है जिसमें वजह से इनके शरणार्थी हो जाने का खतरा बना हुआ है।
ऐसा नहीं है कि सिर्फ इंसान ही इस विपदा के मारे है। अगर सुंदरबन का कुछ हिस्सा पानी में डूबता है तो जंगली जानवर भी बची-खुची जमीन की तरह जाएँगे जिस पर पहले ही इंसान अपना हक जमा चुका है। गौरतलब है कि विलुप्ति की कगार पर खड़े शानदार रॉयल बंगाल टाइगर के अंतिम शरण स्थल सुंदरवन को अपने विशिष्ट प्राकृतिक परिवास और प्रजातियों के लिए विश्व धरोहर का दर्जा प्राप्त है।
जमीन बचाने के इस महासंग्राम में कई दशकों से मैंग्रोव जंगलों और प्राकृतिक नहरों के जाल से समुद्र की लहरों पर लगाम लगाए 'समुद्रबन' के छोटे-बड़े कई द्वीप अब यह लड़ाई हार रहे हैं और धीरे-धीर ऊँचे होते जा रहे जलस्तर के आगे नतमस्तक हो रहे हैं।

सुंदरबन के आखिरी रक्षक  कम होते बाघों से सिकुड़ता 'समुद्रवन'
बंगाल की खाड़ी के मुहाने पर स्थित 7,900 वर्ग मील क्षेत्रफल में फैला सुंदरबन मैंग्रोव पारिस्थिति तंत्र दुनिया का सबसे बड़ा मैंग्रोव क्षेत्र तथा भारत और बांग्लादेश का एकमात्र मैंग्रोव जंगल है, जहाँ आज भी बाघ (टाइगर) अपनी दहाड़ से अपने अस्तित्व का परिचय देते यहाँ स्वछंद विचरण करते हैं। दुरूह दलदली क्षेत्र में फैले और 'बाघादेव' द्वारा संरक्षित सुंदरबन के बारे में भारत तथा बांग्लादेश में बहुत चर्चा नहीं है पर इतना तो पता चल ही चुका है कि सुंदरबन के इस रक्षक को अब कम होते क्षेत्र, घटते शिकार और शिकारियों के कारण भारी नुकसान हो रहा है। इसी तरह प्राकृतिक आपदाओं व मनुष्य की गतिविधियों से बाघों की शरणस्थली मैंग्रोव जंगल भी अब तेजी से खत्म होते जा रहे हैं।
प्राकृतिक आपदाओं से बचाव :
समुद्र तट को ताकतवर लहरों, तूफानों, यहाँ तक कि सुनामी तक से बचाने वाली इस मैंग्रोव रक्षापंक्ति का निर्माण होता है ताजे पानी और खारे पानी के मिलन से बनने वाले तलछ्ट पर। इसकी दलदली मिट्टी अत्यंत उपजाऊ होती है और मैंग्रोव के लिए आदर्श मानी जाती है। स्थानीय लोगों के मुताबिक इस क्षेत्र में बहुतायत से मिलने वाले सुंदरी (मैंग्रोव की एक प्रजाति) के वृक्षों के नाम पर इसे सुंदरबन कहा जाता है। इसका एक बड़ा क्षेत्र बांग्लादेश में है।
बताया जाता है कि सुंदरबन के लगभग पाँच प्रतिशत बाघ आदमखोर हैं। यह अनुमान उम्मीद से ज्यादा भी हो सकता है क्योकि पिछले दो सालों में प्रतिबंधित क्षेत्र में अवैध तरीके से लोगों की घुसपैठ बढ़ी है। पिछले 2000 सालों के विकासक्रम से गुजर चुके सुंदरवन मैंग्रोव क्षेत्र में पशु-पक्षियों की अनेकों प्रजातियों को आसरा मिला हुआ है। इसे 1973 में टाइगर रिजर्व के रूप में घोषित कर दिया गया था और 1984 में इसे सुंदरवन राष्ट्रीय उद्यान बनाया गया। 1997 में इसे यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर का दर्जा दिया गया।
घटती तादाद पर चिंता :
सुंदरबन के बाघों की घटती तादाद पर 'टाइगर कंसर्वेशन लैंडस्केप ऑफ ग्लोबल प्रायोरिटी' के एक विस्तृत अध्ययन पर आधारित रिपोर्ट बनाई जा रही है। इस अध्ययन का मकसद है मैंग्रोव जंगलों में बाघों की विकास-प्रक्रिया को समझना, उनकी संख्या की सही जानकारी तथा बाघों और मनुष्यों के बीच लगातार बढ़ती मुठभेड़ों के कारणों को पता करना। इसका एक और मकसद यह भी पता लगाना है कि सुंदरबन के अस्तित्व के लिए बाघों का होना कितना जरूरी है।
हाल के वर्षों में सुंदरबन में बाघों द्वारा लोगों पर हमले की घटनाओं में अचानक इजाफा हुआ है। अमूमन हर साल 15-20 से अधिक ऐसी घटनाएँ दर्ज की जाती हैं जिनमें से कुछ में ही भाग्यशाली मनुष्य जिंदा बच पाते हैं। दूरस्थ इलाकों की घटनाएँ तो अकसर पता ही नहीं चल पातीं या लोग इन्हें दर्ज नहीं करवाते। दरअसल सुंदरबन का बहुत-सा क्षेत्र लोगों के लिए प्रतिबंधित है, पर मछुआरे और लकड़ी तथा शहद बटोरने वाले अकसर चोरी-छिपे इन जंगलों में घुस जाते हैं।
यह क्षेत्र जो कि रिजर्व का बफर जोन है, दरअसल टाइगर टेरिटरी होता है। आमतौर पर हर बाघ अपने इलाके अपने मूत्र या मल से चिह्नित करते हैं, पर सुंदरबन में हर रोज आने वाले ज्वार व इस क्षेत्र में अकसर होने वाली भारी बरसात इन निशानों को धो देती है जिस वजह से यहाँ बाघ अपना क्षेत्र चिह्नित नहीं कर पाते और अकसर भटकते हुए मानव बस्ती या जंगल के किनारे रहने वालों के पास पहुँच जाते हैं।
आतंक के प्रतीक :
बताया जाता है कि सुंदरबन के लगभग पाँच प्रतिशत बाघ आदमखोर हैं। यह अनुमान उम्मीद से ज्यादा भी हो सकता है क्योकि पिछले दो सालों में प्रतिबंधित क्षेत्र में अवैध तरीके से लोगों की घुसपैठ बढ़ी है। इसका एक कारण यह भी है कि अंडमान-निकोबार में आई सुनामी के बाद काफी बड़े स्तर पर निर्माण कार्य जारी था जिसमें बड़ी संख्या में सुंदरबन के लोगो को वहाँ रोजगार मिला था पर काम के पूरे होने के बाद लोग वापस अपने क्षेत्रों में लौट आए हैं और रोजी-रोटी की तलाश में प्रतिस्पर्धा के चलते बहुत से लोग प्रतिबंधित क्षेत्रों में जाने से भी गुरेज नहीं करते हैं। गैरसरकारी आँकड़ों पर नजर डालें तो पता चलता है कि पिछले साल कुल 50 से अधिक लोग बाघ के हमलों में मारे गए व ज्यादातर हमले उत्तर-पश्चिम में हुए जो कि 1225 वर्ग किलोमीटर में फैले बफर जोन में आता हैं।
प. बंगाल सरकार द्वारा हर साल 40 हजार से ज्यादा लोगो को जंगल से शहद व वनोपज एकत्र करने, मछली पकडऩे का परमिट दिया जाता है, पर पैसा कमाने के लालच में हजारों लोग अवैध रूप से इन जंगलों और तटों पर वनोपज इक_ा करने व मछली पकडऩे जाते हैं इसकी और भी कई वजहें हैं जैसे अधिकतर हमले अप्रैल-मई में हुए हैं जब मैंगोव के खिलने का समय होता है और लोग शहद एकत्र करने जंगल में जाते हैं, पर इसी मौसम में बाघिन अपने बच्चों को जन्म देती है और अत्यधिक खतरनाक होती है। इसी वजह से कई बार बाघों द्वारा मारे गए व्यक्ति की बिना खाई लाश मिलती है, वे सिर्फ मारने के लिए हमला करते हैं खाने के लिए नहीं। वन्यजीव विशेषज्ञ बताते हैं कि अधिकतर मामलों में मनुष्य को मारने वाली बाघिन अपने शावक को भी आदमखोर बना सकती है।
प्राकृतिक कारण :
अकेले रहने के आदी बाघ अपने क्षेत्र में घुसने वाले किसी भी प्राणी को बरदाश्त नहीं करते और एक बार मनुष्य को मारने के बाद उन्हें वह अपने प्राकृतिक शिकारों जंगली सूअर और हिरन की बनिस्बत काफी आसान शिकार लगता है। इसी वजह से उम्रदराज बाघ खासतौर पर आदमखोर होते पाए गए हैं। समुद्री जलस्तर के बढऩे से मैंग्रोव में मिलने वाले अपने प्राकृतिक आहार में आई कमी से भी बाघों के भोजन स्त्रोत पर काफी असर पड़ा है। अपने घटते भोजन से बाघ भी अब मानव बस्तियों तथा गाय-भैंस जैसे आसान शिकार की ओर ज्यादा आकर्षित होने लगे हैं।
बेबस जनता :
बरसों से उपेक्षित, घोर गरीबी व अशिक्षा के कारण भारत के इस मुहाने के लोग अल्पतम साधनों से बसर करते हैं। इनकी जीविका का मुख्य साधन गाय-भैंस व भेड़-बकरियाँ हैं जिन्हें चरने के लिए जंगल के किनारे छोड़ दिया जाता है जो बाघ के लिए आसान शिकार हैं। अपने क्षेत्र को चिह्नित करने में असमर्थ बाघ कई बार भटकते हुए जंगल के किनारे पहुँच जाते हैं और अगर एक बार उन्होंने इन घरेलू जानवरों का शिकार कर लिया तो फिर मनुष्य पर उनके हमले की संभावना बढ़ जाती है।
विलक्षण व्यवहार :
आमतौर पर वन्यपशु इनसानों से डरते हैं और उनका सामना करने से बचते हैं पर यहाँ के बाघों के बारे में कहा जाता है कि वे बहुत ही अधिक खूँखार हैं। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार कई बार बाघ बीच नदी में मछली पकड़ते मछुआरों को उनकी नौकाओं तक से खींच ले गए हैं, उनका इस कदर ताकतवर होना इसलिए भी लाजमी है कि इन्हें शिकार अकसर दलदली क्षेत्र में करना पड़ता है जिसमें बहुत ताकत की आवश्यकता होती है। सुंदरबन में ताजे पानी के स्रोत बहुत ही कम हैं और बाघों को अकसर खारा पानी पीना पड़ता है जो शायद उनके इस खूँखार व्यवहार का कारण है। पर उनके इस व्यवहार के चलते ही लोग इन जंगलों में जाते डरते हैं और इस विलक्षण प्राणी को बाघादेव मान पूजते हैं, इस वजह से अब तक सुंदरबन मानव गतिविधियों से काफी हद तक अछूता रहा है।
आमने-सामने :
पर अब हालात बिगड़ रहे हैं। प. बंगाल सरकार द्वारा हर साल 40 हजार से ज्यादा लोगो को जंगल से शहद व वनोपज एकत्र करने, मछली पकडऩे का परमिट दिया जाता है, पर पैसा कमाने के लालच में हजारों लोग अवैध रूप से इन जंगलों और तटों पर वनोपज इक_ा करने व मछली पकडऩे जाते हैं।
इसी तरह कई गाँव जैसे शमशेरनगर, कालीताला, कुलताली तथा झारखाली ठीक जंगल के किनारे पर बस गए हैं। कुछ गाँवों की दूरी तो घने जंगल से बस इतनी ही है जितनी बाघ एक छ्लाँग में पार कर ले। यह नजदीकियाँ अब बाघ व मनुष्य दोनों के लिए मुसीबतें ला रही हैं और बढ़ते टकराव के नतीजे में अब लोग 'बाघादेवÓ के खिलाफ लामबंद होने लगे हैं जिसके कारण अब बाघों की भी जान जाने लगी है।
इनसान और जानवर की इस लड़ाई में नुकसान जो भी हो, एक बात तो साफ है कि जंगल और बाघ का रिश्ता ठीक वैसा ही है जैसे जंगल और वर्षा का। दोनों में से एक का भी अनुपात बिगड़े तो पूरे पारिस्थिति तंत्र पर असर पडऩा तय है।
लगातार गरम होती जलवायु भारतीय उपमहाद्वीप में मचा सकती है भयानक तबाही। बढ़ते जलस्तर से उफनते समंदर अपनी सीमाएँ लाँघकर जमीन को अपने आगोश में लेने को बेकरार, भारत और बांग्लादेश के बीच बसे दुनिया के सबसे बड़े मैंग्रोव क्षेत्र सुंदरबन के डूबने का खतरा...
ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण बहुत से देशों के स्थानीय पर्यावरण तंत्र पर असर पडऩा शुरू हो गया है। इसका सबसे ज्यादा असर पड़ रहा है समुद्र तटीय इलाकों पर। समुद्र का बढ़ता जलस्तर धीरे-धीरे इन क्षेत्रों की जमीन को अपने आगोश में ले रहा है। इसका सीधा मतलब है जमीन पर रहने वाली प्रजातियों के रहवास, भोजन, प्रजनन इत्यादि का संतुलन बिगड़ रहा है।
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि 2020 तक भारत और बांग्लादेश के बीच फैले विश्व के सबसे बड़े मैंग्रोव जंगलों में से एक सुंदरबन (जिसे स्थानीय भाषा में समुद्रबन भी कहा जाता है) ग्लोबल वॉर्मिंग के चलते 15 प्रतिशत तक पानी में डूब जाएगा। इसमें साफ तौर से आगाह किया गया है कि इसके लिए वक्त रहते कोई ठोस कार्य योजना नहीं बनाई गई तो आने वाले समय में इन क्षेत्रों की जलवायु में भी भयावह परिवर्तन झेलने पड़ सकते हैं।
यह आशंका जाहिर की गई है 24 परगना, दक्षिण 24 परगना और उत्तर दिनाजपुर की जिला मानव विकास रिपोर्ट (डीएचडीआर) में जो संयुक्त राष्ट्र संघ विकास कार्यक्रम तथा पश्चिम बंगाल सरकार के विकास व नियोजन विभाग और योजना आयोग के साथ साझेदारी में जारी की गई है।
रिपोर्ट में यह तथ्य भी बताया गया है कि दक्षिण 24 परगना में सुंदरवन अत्यधिक जलवायु परिवर्तन होने से असुरक्षित है और यह अनुमान है कि क्षेत्र के 15 प्रतिशत 2020 तक जलमग्न हो जाएगा। रिपोर्ट में आशंका जताई गई है कि सुंदरबन की उपेक्षा से जलवायु परिवर्तन पर सिर्फ भारत और बांग्लादेश ही नहीं बल्कि वैश्विक प्रभाव पड़ सकता है।
रिपोर्ट में पाया गया कि मानव विकास संकेतकों के मामले में दक्षिण 24 परगना जिले के अंतर्गत आने वाले सुंदरबन क्षेत्र में अन्य सभी क्षेत्रों के मुकाबले में सबसे खराब प्रदर्शन दर्ज किया गया।

सुंदरबन पर आई नई मुसीबत दलदली जंगल चट करते कीड़े-मकोड़े

 कोलकाता से दीपक रस्तोगी

 
तेजी से घटती जमीन और कटते जंगल, सुंदरवन में पारिस्थितिकी असंतुलन की समस्या के लिए ये दो कारण कई दिनों से गिनाए जा रहे हैं। इनकी वजह से सुंदरवन का मौसम तेजी से बदला है जिससे यहां वन्यजीव पर गहरा असर पड़ रहा है। हाल में सुंदरवन में काम कर रही वैज्ञानिकों की टीम ने पाया है कि डेल्टा वाले इलाकों में सुंदरी के वृक्ष तेजी से नष्ट हो रहे हैं। स्थानीय लोग उन्हें बचाने की कोशिश कर रहे हैं पर प्रकृति से कौन लड़े?
दरअसल, सुंदरवन पर इन दिनों अनजाने-से कुछ कीड़ों ने हमला कर दिया है। इल्ली (कैटरपिलर) और छोटे पतंगों की तरह दिखने वाले काले, भूरे और हरे रंग के इन कीड़ों की प्रजातियों की पहचान को लेकर वैज्ञानिकों में ऊहापोह की स्थिति है। पिछले तीन महीने से इन कीड़ों ने सुंदरवन के कई द्वीपों पर सुंदरी के पेड़ नष्ट कर डाले हैं। इन पेड़ों को देखकर आपको ऐसा लगेगा कि इन्हें काटा गया है और तने से छाल अलग कर दी गई है। ये कीड़े पत्तियों को कुछ इस तरह खाते हैं कि दूर से देखने पर प्रतीत होगा कि पेड़ों में आग लगाई गई हो लेकिन ध्यान से देखने पर समझ आता है कि यह कुछ तो ऐसी गड़बड़ है जिसे रोकने के लिए गहन शोध की जरूरत है। हाल में ऐसे कुछ कीड़ों को इक_ा कर कई शोध संसाधनों के पास भेजा गया है। अब तक जीओलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया या जादवपुर विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ ओशीनोग्राफी के विशेषज्ञ किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सके हैं। वहीं यहां के विभिन्न इलाकों में वैज्ञानिकों की और भी टीमें भेजी गई हैं और इन वैज्ञानिकों ने अब अपने शोध का दायरा बढ़ा दिया है।

फिर पिछडे भारतीय विश्वविद्यालय

देश में उच्च शिक्षा को मजबूत बनाने के लिए मानव संसाधन मंत्रालय काफी कुछ कर रहा है। काफी पैसे खर्च किए जा रहे हैं और नए आईआईएम और एनआईटी, आईआईटी खोले जा रहे हैं।
लेकिन क्या वाकई देश की उच्च शिक्षा उस हिसाब से प्रगति कर रही है, जैसी जरूरत है। विशेषज्ञों की नजरों में तो सुधार मुकम्मल नहीं है। साथ ही हाल में जारी हुए एक शोध पर ध्यान दें तो भारतीय उच्च शिक्षा की स्थिति उतनी मजबूत नहीं, जितनी बताई जाती है।
उच्च शिक्षा से संबंधित इस साल क्यूएस वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग द्वारा किए गए सर्वे में भारत की कोई भी यूनिवर्सिटी शीर्ष 300 में अपना स्थान नहीं बना पाई है। हालांकि आईआईटी, मुंबई ने कुछ लाज बचाते हुए 187वां स्थान पाया है। जबकि यह संस्थान पिछले वर्ष 163वें स्थान पर था। इस संस्थान को 100 में से 48.79 अंक मिले हैं। दिल्ली यूनिवर्सिटी को 371वां स्थान मिला है, जबकि यह यूनिवर्सिटी पिछले वर्ष 291वें स्थान पर थी। इस वर्ष पिछले सात सालों से पूरी दुनिया में शीर्ष पर कायम हॉवर्ड यूनिवर्सिटी को कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी ने पीछे छोड़ नबंर एक का ताज अपने नाम कर लिया है। सात साल बाद नंबर एक का ताज पहनने वाली ब्रिटिश यूनिवर्सिटी पहली गैर-ब्रिटिश यूनिवर्सिटी है। रैंकिंग में ब्रिटिश यूनिवर्सिटी ने 100 अंक लेकर हॉवर्ड यूनिवर्सिटी (99.19 अंक) को दूसरे स्थान पर धकेल दिया। इसके अतिरिक्त शीर्ष 100 में एशिया की 15 यूनिवर्सिटीज ने जगह पाई है, जिसमें हांगकांग यूनिवर्सिटी शीर्ष पर है। हांगकांग यूनिवर्सिटी 87.28 अंकों के साथ 23वें स्थान पर रही। इस सर्वे में आईआईटी, मुंबई को 187वां, आईआईटी, दिल्ली को 202वां, आईआईटी, कानपुर को 249वां, आईआईटी, चैन्नई को 262वां, आईआईटी, खडग़पुर को 311वां, आईआईटी, गुवाहाटी और आईआईटी, रुड़की को संयुक्त रूप से 401वां स्थान मिला है।

ये हैं देश के बड़े पांच घोटाले जिनसे मचा सियासी तूफान

देश में पिछले दिनों सामने आए कई बड़े घोटालों ने देश की छवि पर बदनुमा दाग लगा दिया है। बहुत संभव है कि इन घोटालों में शामिल लोगों की रकम काला धन के तौर पर विदेशी बैंकों में जमा होती है। अब ऐसे काले धन का राज खुलने की तैयारी है। आइए एक नजर डालते हैं देश के पांच सबसे बड़े घोटालों पर जिसने सियासी तूफान खड़ा कर दिया था...
बोफोर्स घोटाला:
1987 में यह बात सामने आई थी कि स्वीडन की हथियार कंपनी बोफोर्स ने भारतीय सेना को तोपें सप्लाई करने का सौदा हथियाने के लिये 80 लाख डालर की दलाली चुकाई थी। उस समय केन्द्र में कांग्रेस की सरकार थी, जिसके प्रधानमंत्री राजीव गांधी थे। स्वीडन की रेडियो ने सबसे पहले 1987 में इसका खुलासा किया। इसे ही बोफोर्स घोटाला या बोफोर्स कांड के नाम से जाना जाता है। सीबीआई ने विन चड्ढा, ओट्टावियो क्वात्रोची, पूर्व रक्षा सचिव एसके भटनागर और बोफोर्स के पूर्व प्रमुख मार्टिन अर्बदो के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की थी।हवाला कांड: 18 लाख अमेरिकी डॉलर की रिश्‍वत से जुड़े इस मामले में देश के प्रमुख राजनेताओं के नाम आने से सियासी गलियारे में हड़कंप मच गया था। इसमें राजनेताओं पर हवाला ब्रोकर जैन बंधुओं के जरिये यह राशि लिए जाने का आरोप था। इस घोटला के आरोपियों में भाजपा के वरिष्‍ठ नेता लाल कृष्‍ण आडवाणी, कांग्रेस नेता विद्याचरण शुक्‍ल, शरद यादव, बलराम जाखड और मदन लाल खुराना सहित कई राजनेताओं और मशहूर हस्तियों का नाम था। इनमें अधिकतर आरोपी सबूतों के अभाव में करीब 12-13 साल पहले ही बरी हो चुके हैं।
स्‍टॉम्‍प घोटाला:
अब्‍दुल करीम तेलगी 43 हजार करोड़ रुपये से अधिक के फर्जी स्‍टॉम्‍प घोटाले का मुख्‍य अभियुक्‍त है। तेलगी को इस मामले में दस साल की कैद हुई है। सितम्‍बर 2006 में नारको टेस्‍ट के दौरान एनसीपी नेता शरद पवार और छगन भुजबल का भी नाम लिया था। स्टॉम्प घोटाला में भुजबल का नाम उछलने के बाद पार्टी ने उन्हें महाराष्‍ट्र के उपमुख्यमंत्री पद से हटाया जिसके बाद छगन भुजबल करीब 3 सालों तक राजनीतिक अज्ञातवास में रहे थे। कई पुलिस अधिकारियों पर आरोप है कि उन्‍होंने जेल के भीतर से ही तेलगी को फर्जी स्‍टाम्‍प का गोरखधंधा चलाने में मदद की। फर्जी स्टाम्प घोटाले के मुख्य आरोपी तेलगी को न्यायालय ने सात साल की सजा सुनाई है।
2जी घोटाला:
संसद में पेश सीएजी रिपोर्ट के मुताबिक यह पूरा घोटाला 1.76 करोड़ रुपये का बताया गया है। आरोप है कि दूरसंचार मंत्रालय ने 2जी स्‍पेक्‍ट्रम की नीलामी के दौरान नियमों को ताक पर रखकर प्रमुख निजी टेलीकॉम कंपनियों को लाइसेंस दिया। ये लाइसेंस 2008 में आवंटित किए गए थे, जिसमें नियमों का खुले तौर पर उल्लंघन किया गया था। इस मामले में तत्‍कालीन दूरसंचार मंत्री और डीएमके नेता ए राजा को पद भी छोडऩा पड़ा है। मामले की जांच सीबीआई के जिम्‍मे है। विपक्षी दलों ने इस मामले की जांच जेपीसी को सौंपे जाने के मुद्दे पर संसद का शीत सत्र नहीं चलने दिया।
राष्‍ट्रमंडल खेल घोटाला:
 नई दिल्‍ली में गत अक्‍टूबर में हुए राष्‍ट्रमंडल खेलों के आयोजन में बड़े पैमाने की आर्थिक अनियमितता की बात सामने आने के बाद सियासी माहौल गरमा गया। इन गड़बडियों की जांच में जुटी सीबीआई ने कांग्रेस नेता और इन खेलों की आयोजन समिति के अध्‍यक्ष सुरेश कलमाड़ी से लंदन में 2009 में हुई क्वींस बेटन रिले के भुगतान और कई कंपनियों को दिए गए करोड़ों रुपये के ठेकों के बारे में पूछताछ की है। इस मामले में कलमाड़ी के कई करीबी अधिकारियों की गिरफ्तारी भी हुई है। एक अनुमान के मुताबिक राष्‍ट्रमंडल खेलों और इसके आयोजन से जुड़े अन्‍य कार्यों पर हजारों करोड़ रुपये खर्च किए गए जिसमें अधिकतर धनराशि आयोजन समिति के अधिकारियों के जेब में जाने के आरोप हैं। इन खेलों के दौरान करीब 70-80 हजार करोड़ रुपये के वारे न्‍यारे होने का अनुमान है।  

आखिर कितने घोटाले याद रखेगी आम जनता?

अनिल पाण्डेय

एक तरफ एनडीए केंद्र में सत्तारुढ़ यूपीए सरकार को भ्रष्‍टाचार के मुद्दे पर घेरने की कोशिश कर रही है और जेपीसी के गठन की मांग पर अडिग है, वहीं दूसरी ओर भाजपा के वरिष्ट नेता और लोक लेखा समिति के अध्यक्ष व सांसद मुरली मनोहर जोशी पीएसी की जांच को पर्याप्त बता रहे हैं। उनका कहना है कि 2जी स्पेक्ट्रम जैसे महाघोटाले में लिप्त दोषियों तक पहुँचने के लिए पीएसी कि जांच सक्षम है।
उनकी इस बात से उनकी ही पार्टी के लोग इत्तेफाक नहीं रखते और जेपीसी से कम किसी भी जांच पर समझौता नहीं करना चाहते। ज्ञात हो कि लोकलेखा समिति केवल खातों सम्बंधित जांच कर सकती है और महालेखा परीक्षक (सीएजी) की रिपोर्ट से आगे इसका कोई दायरा भी नहीं है। और इसके जांच के अधिकार सीमित हैं, जबकि संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) शासकीय और ज़वाबदेही के लिए किसी को भी कटघरे में खड़ा कर सकती है।
इन जांच के विवादों से मुरली मनोहर जोशी अपनी पार्टी के अन्दर वैसे ही अलग थलग पड़ गए हैं, जैसे पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी परमाणु करार के मुद्दे पर मार्क्‍सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) में पड़ गए थे। यह दीगर बात है कि इसके लिए चटर्जी को बाद में माकपा से निष्कासित कर दिया गया था।
जहाँ देश 2जी स्पेक्ट्रम, राष्ट्रमंडल खेलो और आदर्श हाउसिंग सोसाइटी में हुए भारी भ्रष्‍टाचार की विभीषिका को झेल रहा है, वहीं देश के राजनितिक दल इन घोटालो पर अपनी राजनितिक रोटियां सेकने से बाज़ नहीं आ रहे।
जहाँ खेलो के दौरान खेल अधिकारी और उससे जुड़े मंत्री व अन्य लोग एक दुसरे की महिमा मंडन करने से नहीं चूक रहे थे, वहीं अब इन खेलों के पीछे खेले जा रहे भ्रष्टाचार के खेलों का उजागर हुआ है तब वही मंत्री और अधिकारी एक दुसरे को एक दुसरे से ज्यादा भ्रष्ट बताने में लगे हुए हैं।
यह एक विडम्बना है कि इस भारी भ्रष्टाचार में लोकतंत्र के चारो स्तंभ न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका और पत्रकारिता सभी लिप्त पाए गए हैं। अब इसमे देखना है कि जिस पीएसी कि जांच को कांग्रेस न्यायिक और उचित बता रही है, वहीं इसके अधिकार छेत्र भी सीमित हैं।
विदित हो कि जेपीसी की जांच को राजनितिक जांच करार देने वाली कांग्रेस को ये बात भली भांति पता है कि अगर जेपीसी गठित होती है, तब भ्रष्टाचार में लिप्त दोषियों कि संख्या भी बढ़ेगी और कई नए चहरे बेनकाब होगें, जो कि संप्रग सरकार को कत्तई गंवारा नहीं है।
अब देखना ये है कि साल 2010 में उजागर हुए इन महाघोटालों में लिप्त दोषियों को सजा मिलती है, या फिर देश में हुए पिछले घोटालों के ऊपर एक जांच कमिटी बनाकर मामले को रफा दफा कर दिया जाएगा।
वैसे भी इस देश के लोंगो कि याददाश्त बहुत कम है, हर एक भ्रष्टाचार के मामले के खुलासे  के बाद एक नयी भ्रष्टाचार की कड़ी जुड़ जाती है और लोग पिछली बातों को भूल नए खुलासे में उलझ जाते हैं। वज़ह भी है, क्योँकी हमारे देश में होने वाले ये नए भ्रष्‍टाचार के खुलासे सुरसा के मुंह की तरह ही बढ़ते जाते हैं। ऐसे में देश के विकास की बाते करती ये राजनितिक दल कहाँ तक सही है ये समझाना बहुत ही आसान है।

अहम् मुद्दों पर चुप क्‍यों है कांग्रेस का 'युवराज'?

प्रकाश प्रियदर्शी

देश की राजनीति में राहुल गांधी की भूमिका अतिमहत्वपूर्ण है। मीडिया उन्हें युवराज की संज्ञा देती है। प्रधानमंत्री कहते हैं राहुल जब चाहेंगे वे उनके लिए कुर्सी छोड़ देंगे। देश में परिवारवाद पर लंबी बहस हुई है और हो रही है। हाल में संपन्न हुए बिहार विधानसभा चुनाव में भी परिवार वाद पर जमकर बहसबाजी हुई। कुछ वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषकों ने इसके लिए जवाहर लाल नेहरू को जिम्मेदार माना। उनका आरोप है कि  राजनीति में परिवार की शुरूआत नेहरू जी ने की।
राहुल का जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ जिसका भारतीय राजनीति पर लगभग एकक्षत्र राज रहा है। इसलिए राहुल देश की सबसे पुरानी पार्टी की तरफ से स्वाभाविक प्रधानमंत्री के दावेदार हैं। कल  वे प्रधानमंत्री भी बनेंगे। उनके लिए कोई भी सिर झुकाकर अपनी जगह छोड़ देगा।
लेकिन राहुल कहते हैं कि उनका ध्यान सिर्फ पार्टी का संगठन मजबूत करने पर है। इसलिए वे उपी,तमिलनाडु के भ्रमण पर हैं क्योंकि वहां भी विधान सभा चुनाव की सरगर्मियां तेज होने वाली है। बिहार में भी उन्होंने पूरा जोर लगाया लेकिन वहां कोई चमत्कार नहीं हुआ।
देश की जनता महंगाई और भ्रष्टाचार से त्रस्त है। लेकिन सरकार पकड़ होने के बाद भी राहुल गांधी कुछ भी नहीं कर रहे हैं। वे ज्यादातर प्रासंगिक मसले पर अपनी राय नहीं देते। इसबार एक बेतुका सा बयान दे दिया कि महंगाई के लिए गठबंधन सरकार जिम्मेदार है।
चलिए अगर इसको मान भी लें तो इसका मतलब है कि राहुल गांधी यह मानते हैं कि जनता महंगाई से त्रस्त है तो है इसके लिए वे खुद ही जिम्मेदार है । लेकिन जब राहुल गठबंधन की राजनीति के कारण कुछ नहीं कर पा रहे हैं तो वे जबर्दस्ती सरकार क्यों चला रहे हैं। क्या राहुल गांधी की यह सत्ता लोलुपता नहीं है ?
वे अपनी मर्जी से मंत्री बनवा पा रहे हैं , अपने प्रवक्ताओं को अगंभीर बयानों के बचाव में लगा रहें हैं । लेकिन जब बात राष्ट्रीय मुद्दों की आती है तो वे चुप हो जाते हैं या यह कहकर पल्ला झाड़ लेते हैं कि सबकुछ गठबंधन सरकार की वजह से हो रही है।
भगवा आतंकवाद पर वे देश में ही नहीं विदेशियों से भी चिंता जाहिर कर सकते हैं लेकिन आम जनता से जुड़े मसले पर अनुभवहिनता का ढाल ओढ लेते हैं ।
युवाओं से राजनीति में आने की अपील करने वाले राहुल गांधी के पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि देश जिन समस्याओं से दो चार हो रहा है उससे कैसे निपटा जाए।
राहुल देश का भ्रमण तो कर रहे हैं लेकिन यात्राएं निहायत ही राजनीतिक हैं। महंगाई और भ्रष्टाचार से जनता त्रस्त हैं लेकिन देश के भावी प्रधानमंत्री युवाओं से राजनीति (कांग्रेस का वोटर बनने ) में आने की अपील करने में लगे हैं ।
जिस अधिकार से राहुल कहते हैं कि देश के युवा राजनीति में आएं, तो यह उनकी जिम्मेदारी बनती है कि वे बिगड़ेत हालात में, जब प्रधानमंत्री भी महंगाई की समस्या का हल नहीं निकाल पा रहे हैं तो राहुल को सीधे हस्तक्षेप करें ।
आखिर राहुल गांधी को देश की राजनीतिक हालात को समझने के लिए और कितना वक्त चाहिए। सांप्रदायिक मुद्दों पर बेबाक राय देने वाले राहुल गरीब जनता से जुडे मसलों पर भी कब अपनी राय देगें?  वे भी अन्य कांग्रेसी नेताओं की तरह आरोप लगाने की राजनीति ही कर रहे हैं। कांग्रेस का युवराद यह कहकर संतुष्ट हो जाता है कि आपके (भाजपा) समय भूख से 500 मरे थे हमारे समय 400 ही मरे हैं । फिर राहुल और अन्यों की मानसिकता में क्या फर्क है ?
इतिहास गवाह है भारत की जनता की मार में आवाज नहीं होती लेकिन उसका असर बड़ा गहरा होता है। हां, यह जरूर है आम जनता अपने नेताओं को समझने में थोड़ समय लेती है लेकिन उसे बेवकूफ समझने वाले आज क्या कर रहे हैं इसके लिए ज्यादा पीछे जाने की जरूरत नहीं है । बिहार चुनाव अभी अभी खत्म हुआ है। राहुल गांधी भी इस बात को समझ जायें।

पुस्तक चर्चा : नर्मदा: ऐतिहासिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन

ललित सुरजन

ऐसा कहा जाता है कि नर्मदा देश की सबसे पुरानी नदी है। उसका उद्गम आज से लाखों साल पहले गंगा-यमुना के भी पहले हो गया था।
नर्मदा मध्यप्रदेश तथा गुजरात की जीवनदायिनी नदी तो है ही, महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ भी उससे लाभान्वित होते हैं। इस प्राचीन सरिता के किनारे ही भारत के मध्य भाग की संस्कृति का विकास अनेकानेक शताब्दियों से होते आया है। नर्मदा के तट पर ओंकारेश्वर में ही आदि शंकराचार्य ने दीक्षा ग्रहण की थी। अनेक शताब्दियों बाद इसी नदी पर महेश्वर में रानी अहिल्या बाई होलकर ने सुंदर घाटों का निर्माण करवाया था। माखनलाल चतुर्वेदी, भवानीप्रसाद मिश्र और हरिशंकर परसाई जैसे विख्यात साहित्यकार नर्मदा का पानी पीकर ही बड़े हुए।
नर्मदा पर विपुल साहित्य रचा गया है। इसी श्रृंखला में युगलकिशोर सिंह ठाकुर ने ''नर्मदा : ऐतिहासिक, धार्मिक, सांस्कृतिक अध्ययन'' शीर्षक से नई पुस्तक प्रकाशित की है। श्री ठाकुर नर्मदा तट पर मंडला के निवासी हैं। इस नाते उन्होंने यह पुस्तक लिखकर मातृ ऋण से उऋण होने का सार्थक प्रयत्न किया है। श्री ठाकुर की इस पुस्तक में, जैसा कि शीर्षक से स्पष्ट है, विषय से जुड़े हुए विविध पहलुओं का अध्ययन किया गया है। इसमें नदी के भौगोलिक परिचय के साथ-साथ धार्मिक, आर्थिक, पर्यटक महत्व को भी रेखांकित किया गया है। लोकमानस में नर्मदा किस तरह लोक गीतों के माध्यम से रची-बसी है, इस पर भी एक अध्याय है एवं वर्तमान समय में बड़ी-छोटी सिंचाई योजनाओं के चलते नदी का स्वरूप कैसे बदल रहा है, यह भी लेखक ने भलीभांति स्पष्ट किया है। यह पुस्तक आम पाठकों के लिए उपयोगी है, साथ ही साथ शोधार्थियों के लिए भी। श्री ठाकुर अध्यापक और पुलिस अधिकारी दोनों रहे हैं तथा पुस्तक में उनकी विश्लेषणात्मक क्षमता का उत्तम परिचय मिलता है।

धूमकेतु बन उभरी दीपिका कुमारी

भारतीय तीरंदाजी के इतिहास में वर्ष 2010 की जब-जब चर्चा होगी। इसे देश के रिकर्व तीरंदाजों दीपिका कुमारी और राहुल बनर्जी और तरुणदीप राय के स्वर्णिम प्रदर्शनों के लिए याद किया जाएगा। महिला तीरंदाजी में रांची की सोलह वर्षीय दीपिका इस वर्ष जहां धूमकेतू सी चमकी वहीं स्टार खिलाड़ी डोला बनर्जी उम्मीदों के अनुरूप प्रदर्शन नहीं कर सकीं।
वर्ष का सबसे शानदार प्रदर्शन दिल्ली में संपन्न राष्ट्रमंडल खेलों में रहा जहां राहुल और दीपिका ने न सिर्फ व्यक्तिगत स्पर्धा के स्वर्ण जीते बल्कि दीपिका ने महिला रिकर्व टीम को भी स्वर्ण दिलाया। पुरुष रिकर्व टीम ने भी प्रतियोगिता का कांस्य जीता था। पहली बार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सीनियर मुकाबले खेलने उतरी दीपिका ने वर्ष में दो व्यक्तिगत और दो टीम स्वर्ण जीते। राहुल ने एक व्यक्तिगत और दो टीम जबकि तरुणदीप ने दो व्यक्तिगत और एक टीम स्वर्ण जीते।
हालांकि 28 साल के अंतराल के बाद राष्ट्रमंडल खेलों में शामिल इस खेल में भारत का प्रदर्शन उम्मीद के अनुरूप नहीं रहा और उसे दांव पर लगे आठ में से केवल तीन स्वर्ण हाथ लग सके। फिर भी, इन तीन स्वर्ण के साथ उसे एक रजत और चार कांस्य मिलाकर कुल आठ पदक हासिल हुए।
दीपिका ने व्यक्तिगत रिकर्व स्पर्धा और राहुल ने इसी स्पर्धा के पुरुष वर्ग में सोना जीता। इन खेलों में दो स्वर्ण और दो कांस्य महिलाओं के नाम रहे। दीपिका, डोला और बोम्बालया देवी की रिकर्व टीम ने स्वर्ण जीता वहीं राहुल, जयंत तालुकदार और तरुणदीप राय की पुरुष रिकर्व टीम ने कांस्य जीता था।

भारतीय हॉकी की नई 'रानी', रानी रामपाल

सत्येन्द्र पाल सिंह

अभाव और गरीबी से जूझने का माद्दा अक्सर इंसान को बेहतर करने को प्रेरित करता है। जो शख्स अभावों से जूझ कर अपना वजूद बनाने में कामयाब रहता है वही कुंदन बनता है। गरीबी और अभावों के थपेड़ों से लड़कर खुद का अपना एक अलग वजूद बनाने की ही कहानी है भारतीय हॉकी की नई 'रानी', रानी रामपाल। दिल्ली और चंडीगढ़ के रास्ते के अधबीच एक छोटा सा कस्बा है- शाहबाद मरकंडा। इसी कस्बे की हॉकी नर्सरी से भारतीय हॉकी टीम की कप्तान सुरिंदर कौर की तरह वर्ल्ड हॉकी में अपनी मौजूदगी का अहसास कराने वाली एक नई बाला आई है रानी रामपाल। वह एक घोड़ा तांगा चला कर अपने परिवार का गुजारा करने वाले की बेटी है।
16 वर्षीया रानी रामपाल की कहानी भारत के हॉकी धुरंधर धनराज पिल्लै से बहुत हद तक मिलती-जुलती है। रानी का बचपन भी धनराज की तरह बहुत गरीबी में बीता। वह भी अपने भाई -बहनों में सबसे छोटी हैं। घर में खाने तक के शुरू में लाले थे। ऐसे में हॉकी खेलने की अपनी हसरत को पूरा करने के लिए अपने परिवारजनों खासतौर पर माता -पिता को मनाने के लिए रानी रामपाल को बहुत पापड़ बेलने पड़े। रानी का खुद पर भरोसा इतना बेमिसाल है कि वह अपने घरवालों खासतौर पर बड़े भाइयों को मनाने में कामयाब रही। रानी के दो बड़े भाईं हैं। एक दुकान पर छोटा -मोटा काम करता है। उनसे बड़ा एक भाई बढ़ई (कारपेंटर) है। एक बार हॉकी थामने के बाद उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। वह पिछले दो बरस में खुद को भारत की नंबर एक हॉकी फॉरवर्ड के रूप में स्थापित कर चुकी हैं।

सवाल कौन करेगा?

भुवनेश जैन
जयपुर विकास प्राधिकरण में हाल ही हुई एक घटना ने यह उजागर कर दिया है कि मीडिया को भ्रष्ट करने की कोशिश ऊपर से नीचे तक हर जगह चल रही है। पिछले दिनों राडिया प्रकरण खुलने के बाद मीडिया से जुड़े बड़े नामों की असलियत सामने आ गई थी। अब जयपुर विकास प्राधिकरण में नए साल के उपहार के रूप में कैश कार्ड बांटने की घटना सामने आई है। इससे पता चलता है कि मीडिया को लालच देकर उसका मुंह बंद करने के प्रयास हर स्तर पर हो रहे हैं। अफसोस की बात यह है कि मीडिया का बड़ा वर्ग इस तरह के उपहारों या नकदी को अधिकार समझकर ग्रहण कर रहा है और जाने-अनजाने भ्रष्टाचार और घोटालों में शामिल हो रहा है।
मीडिया का मुंह बंद रखने के लिए तरह-तरह के प्रलोभन दिए जाने लगे हैं। इसका नतीजा यह हो रहा है कि आज पत्रकारिता के पेशे में ऎसे लोगों का जमावड़ा बढऩे लगा है, जो इन प्रलोभनों की ओर आकर्षित होकर इस पेशे में आ रहे हैं। साधारण प्रेस कॉन्फे्रंस का कवरेज करने के लिए मंहगे उपहार या नकदी के लिफाफे बांटना तो आम हो गया है। जितनी बड़ी गड़बड़ी उतना बड़ा उपहार! अफसरों को यह सुविधा हो गई है कि खूब घोटाले करो, पर प्रेस का मुंह बंद करना सीख लो। इसी प्रचलन ने प्रेस के बड़े हिस्से को बिकाऊ माल की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया है।
कहीं संपादकों के आतिथ्य की व्यवस्था की जाती है तो कहीं सरकारी क्वार्टर वितरित किए जाते हैं। एक समय विभिन्न विधाओं और वर्गो को संरक्षण देने के लिए उन्हें प्राथमिकता और रियायत के आधार पर जमीन देने की सरकारों की नीति रही है। इनमें स्वतंत्रता सेनानी, कलाकार, पत्रकार, साहित्यकार आदि वर्ग शामिल थे। धीरे-धीरे बाकी वर्गो को भुला दिया जाना और सिर्फ पत्रकारों को रियायतें देना यह बताता है कि आज सरकारी नीतियों में "संरक्षण" के बजाय "प्रलोभन" का उद्देश्य प्रमुख हो गया है।
"पत्रिका" में ऎसे कई दृष्टांत मिल जाएंगे, जब पत्रकारों को प्रलोभन देने की घटनाएं सामने आने पर महंगे उपहारों को कठोर पत्रों के साथ लौटाया गया है। ऎसे प्रलोभनों की चमक में राह भटकने वाले कई पत्रकारों को नौकरी से भी हाथ धोना पड़ा है।
हाल ही की घटना में जयपुर विकास प्राधिकरण ने पत्रकारों को बुला-बुलाकर एक्सिस बैंक के कैश कार्ड दिए। ये कैश कार्ड किसी नकदी से कम नहीं हैं। चाहे इसमें दी गई रकम से खरीदारी करो, चाहे एटीएम से कैश निकलवाओ। सरकार के जिम्मेदार मंत्री, प्राधिकरण के अफसर और धन प्राप्त करने वाले पत्रकारों को इस कारगुजारी पर अफसोस नहीं होता? पत्रिका के संवाददाता अभिषेक श्रीवास्तव व मुकेश शर्मा को भी पेशकश की गई, पर उन्होंने कार्ड लेने से इनकार कर दिया। हम यहां यह संकल्प दोहराना चाहते हैं कि यदि पत्रिका का कोई संवाददाता किसी से भी समाचार के बदले कुछ मांगता है तो पहले हमें सूचना दें। तुरंत कार्रवाई की जाएगी।
मीडिया को लोकतंत्र का प्रहरी माना जाता है। जब लोकतंत्र के तीनों स्तंभों में कहीं कोई गड़बड़ी हो तो मीडिया से अपेक्षा की जाती है कि वह उसे उजागर करेगा, लेकिन जब उसका मुंह प्रलोभनों से बंद कर दिया जाएगा तो जनता का पैसा लुटता रहेगा और कोई सवाल नहीं कर पाएगा।