इस माह जब तक यह अंक आपके हाथों में होगा, आप पर होली और धुलेंडी का खुमार चढऩे लगा होगा. होली यूं तो देशभर में बड़े उत्साह के साथ मनाई जाती है लेकिन उत्तर भारत में इसका स्वरूप अलग ही है. वैसे बॉलीवुड की होली भी हमेशा यादगार रहती है. हम वर्षों से इस त्योहार को मनाते हैं. कोई इसे राधा-कृष्ण की ठिठोली के रूप में लेता है तो कोई मदनमास के रूप में. होली के साथ ही मौसम में बदलाव भी शुरू होता है. गेहूं की फसल जवान हो जाती है. किसान के मन में अलग तरह की हिलोर रहती है लेकिन बदलते सामाजिक परिवेश और एक नई अंगड़ाई लेते भारत में अब पर्वों का उत्साह कम होने लगा है. पश्चिमी सभ्यता ओढ़कर अपने संस्कारों को भूलते भारतीय समाज मे त्योहारों की उमंग और उत्साह कहीं फीका पडऩे लगा है. इसके साथ ही भ्रष्टाचार का महंगाई के रूप में दंश झेलती जनता का मन पीडि़त है और उसे अब होली के सुंदर रंग नहीं बल्कि सरकार की उजली चादर पर पड़े काले छींटों के कारण दुख और अफसोस हो रहा है. कभी कॉमनवेल्थ, कभी आदर्श सोसायटी, कभी सीवीसी और कभी क्वात्रोच्चि लगातार ऐसे मामलों में सरकार शर्म से डूब मरने को दिखाई देती है जो हमारी होली के उत्साह को कम कर रहा है. कैसे होली खेले कोई. देश में हाहाकार की स्थिति है. पूरी सरकार बाजार को बचाने के लिए आम जन की परीक्षा लेने को आमादा हो गई है. इस देश का आम आदमी पर्व त्योहार पर ही तो खुश होता था, वह खुशियां भी आपने महंगाई के आंचल में समेटकर रख दी. देश अपने ईमानदार प्रधानमंत्री से न्याय की उम्मीद कर रहा है. जगह-जगह खेली जा रही खून की होली से वह निराश और हताश है. उसके जीवन में रंग भरने की जिम्मेदारी इस देश की सरकार की है और उसे अपनी जिम्मेदारियों से भागना नहीं चाहिए. देश के आम आदमी के हिस्से में जो आता है, कम से कम वह तो उस तक पहुंचाइए. हम देखते रहे हैं कि होली के त्योहार की उमंगें कितनी होती थी. रंग, गुलाल, मस्ती, धमाल, नाच-गाना और पागलपन की हद तक उत्साह का त्योहार ही तो है होली. आइए, हर व्यक्ति के जीवन में रंग भरने का प्रयास करें ताकि हर आदमी के चेहरे पर नूर दिखाई दे, एक भारतीय होने के नाते हम सबकी नैतिक जिम्मेदारी है कि अपने बंधु-बांधवों को भी खुशियों की सौगात देकर अपनी पुष्पित-पल्लवित परंपराओं का निर्वहन करें. किसी का जीवन बदरंग होने से बचाएंगे तो दिल को सुकून मिलेगा. इस होली पर यह कोशिश करें कि छींटे रंग के ही हों, होली का हुड़दंग न हो. फूलों की होली खेलें, पानी की बचत करें और महसूस करें कि इस होली पर आपने पर्यावरण, प्रकृति और समाज को क्या कुछ दे दिया है. तभी सार्थक होगी होली और धुलेंडी. नव संवत भी है, हम भारतीय नववर्ष के मौके पर सभी को शुभकामनाएं देते हैं और उम्मीद करते हैं कि भारत का राज समाज अपनी जिम्मेदारियों को समझेगा और इस देश के अंतिम आदमी तक भी इंसाफ और न्याय की रोशनी पहुंचेगी, वह खुशहाल होगा तो ही देश समृद्ध हो सकेगा.
Total State
Thursday, March 17, 2011
आर्थिक नीतियों का आम आदमी पर प्रभाव
वीरेन्द्र भाटिया
भारत में आर्थिक नीतियों को उदार बनाने का श्रेय 1991 के तत्कालीन वित्त मंत्री एवं वर्तमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिह को जाता है। विष्व की आर्थिक मंडी में जब साम्यवादी चीन भी गोता लगाने की तैयारी में था तो भला मिश्रित अर्थव्यवस्था वाला यह देष किस कदर पीछे रहता। भारत में उदार आर्थिक बाजार के 20 बरस पूरे हो गये है। और 20 बरस किसी भी निर्णय के मूल्यांकन के लिए कम समय नही होता। आज बीस बरसों बाद यदि आर्थिक नीतियों का या उदार बाजार का मूल्यांकन करें तो हम स्वय को कहां पाते है और आम आदमी इस पूरे खेल के केन्द्र में है या केन्द्र से बाहर है यह विवेचना हमें अब तो कम से कम कर ही लेनी चाहिए।
विवेचना हमे उन आपत्तियो की ही करनी चाहिए जो उदारीकरण के वक्त उठाई गई थी ताकि यह संज्ञान रहे कि आपत्तियां दूरदर्षी थी या नीतियां।
उस वक्त की पहली आपत्ति और तर्क था कि जब पूंजी को बाजार में खेलने के लिए छूट मिलती है तो वह संसाधनों का अनावष्यक दोहन करता है। देष के संसाधनों पर आम आदमी का उतना ही हक है जितना किसी खास का। और यदि उन संसाधनों से आम आदमी अपना पेट भर रहा है तो वे संसाधन आम आदमी के ही होने चाहिए लेकिन पूंजी अपने प्रभाव से उन संसाधनो को हथिया लेती है।
यदि हम पूरे देष की स्थिति पर नजर डालंे तो इस वक्त पंजी के खेल से आम आदमी बाहर हो रहा है। जहां जहां संसाधन है वहां वहां निजी कंपनियां अपना प्रभुत्व कायम कर रही है। नक्सलवाद की यदि जड को पहचानने की कोषिष करें तो संसाधनों पर पूंजी के कब्जे और आम आदमी के संघर्श की ही कहानी है यह नक्सलवाद। और यह संघर्श उन्ही राज्यों में है जहां साम्यवाद का कुछ असर है। अन्यत्र राज्यों में लोग अपनी जमीन पूंजीपतियों को बेच देते है। जमीदार वह राषि लेकर अन्यत्र जमीन ले लेता है, भूमिहीन अपने को ठगा सा देखता रहता है, सरकार जमीन के उंचे भाव देकर अपनी पीठ ठोकती रहती है, आम आदमी कहीं चर्चा, केन्द्र और निर्णय में नजर नही आता। स्टरलाईट के मालिक अनिल षर्मा जब यह कहते हैं कि जमीन के नीचे का सारा व्यापार हमारा है तो वह यह कह रहा होता है कि हमारे पास पूंजी का इतना अम्बार है कि देष में कही भी माईन या तेल या कोयला, खनिज मिलेगा उसे हम खरीद लेंगे। उडीसा में जब स्टरलाईट को खदान कार्य के लिए रोका जाता है तो वह अगले दिन सोनिया गांधी से मिलने पहुंच जाता है। पर्यावरण मंत्री जय राम रमेष को तब समझ में आता है कि पर्यावरण इस देष मे मुद्दा नही है। और स्टरलाईट खदान कार्य निरंतर जारी रखती है। पूंजी को खेलने के लिए जिन नियमों की जरूरत थी वह पिछले बीस बरसों में कही नजर नही आये और सरकारें पूंजी के आगे नतमस्तक होती रही।
आज पूंजी को बाजार में खेलने की खुली छूट दी गई उनमें एक आपत्ति दूसरे किस्म की है कि एक समय के बाद बाजार में पूंजी ही भाव तय करती है, सरकारें नही। आज यह आपत्ति अपने पूरे असर के साथ खडी है जब सरकार के प्रमुख लोग कहते है कि महंगार्इ्र उनके नियंत्रण में नही है। तेल के भाव भी जब बाजार तय करने लगेंगे जिसका सीधा सम्बन्ध महगाई से है, खाद्य वस्तुओं के टा्रंसपोर्टेषन से है तो महंगाई कैसे और क्यूं काबू आये यह समझा जा सकता है। तेल की कीमतों को बाजार के हवाले कर देने का मतलब है तेल कंपनियां अपने लाभ और हानि को खुद देखें। गोया कि तेल कंपनियों की बैलेंस षीट आम आदमी के जीवन से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गई है। और तेल कंपनियां तेल की कीमत निर्धारण में कितनी बेईमान है इसका हम सबको पता है। आज बाजार चीनी के दाम बढाता है, प्याज के दाम बढाता है, दाल, गेहूं और सब्जियों तक के दाम बढा देता है। विदेषी कंपनियां 700 रू क्विटल के हिसाब से गेहूं खरीद लेती है, भारत मे ही गेहू पडा रहता है, जब देष को जरूरत पडती है तो हमी को 1400 ये के हिसाब से बेच देते है। रिलांयस फ्रैष सेब के बाग से सेब, प्याज के खेत से प्याज सीधे उठाकर स्टोर कर लेता है और रिटेलर तक सीधा पहंुचता है तो कीमत तो मनमर्जी की ही वसूलेगा। पूंजी को खेलने का पूरा स्पेस दिया गया है, आम आदमी को चलने के लिए भी टोल टैक्स देना पडता है। प्याज स्टोर करने वालों को यह देष सबक सिखा सकता है यदि पूरा देष आदोलन में कूद पडे कि हम प्याज नही खाएंगे, आप स्टोर में रखिए लेकिन 50रू से जब 40 रू का भाव आता है तो हमें प्याज सस्ते लगने लगते है। पूंजी ऐसे ही बनाती और ऐसे ही बनती और बढती है।
विवेचना हमे उन आपत्तियो की ही करनी चाहिए जो उदारीकरण के वक्त उठाई गई थी ताकि यह संज्ञान रहे कि आपत्तियां दूरदर्षी थी या नीतियां।
उस वक्त की पहली आपत्ति और तर्क था कि जब पूंजी को बाजार में खेलने के लिए छूट मिलती है तो वह संसाधनों का अनावष्यक दोहन करता है। देष के संसाधनों पर आम आदमी का उतना ही हक है जितना किसी खास का। और यदि उन संसाधनों से आम आदमी अपना पेट भर रहा है तो वे संसाधन आम आदमी के ही होने चाहिए लेकिन पूंजी अपने प्रभाव से उन संसाधनो को हथिया लेती है।
यदि हम पूरे देष की स्थिति पर नजर डालंे तो इस वक्त पंजी के खेल से आम आदमी बाहर हो रहा है। जहां जहां संसाधन है वहां वहां निजी कंपनियां अपना प्रभुत्व कायम कर रही है। नक्सलवाद की यदि जड को पहचानने की कोषिष करें तो संसाधनों पर पूंजी के कब्जे और आम आदमी के संघर्श की ही कहानी है यह नक्सलवाद। और यह संघर्श उन्ही राज्यों में है जहां साम्यवाद का कुछ असर है। अन्यत्र राज्यों में लोग अपनी जमीन पूंजीपतियों को बेच देते है। जमीदार वह राषि लेकर अन्यत्र जमीन ले लेता है, भूमिहीन अपने को ठगा सा देखता रहता है, सरकार जमीन के उंचे भाव देकर अपनी पीठ ठोकती रहती है, आम आदमी कहीं चर्चा, केन्द्र और निर्णय में नजर नही आता। स्टरलाईट के मालिक अनिल षर्मा जब यह कहते हैं कि जमीन के नीचे का सारा व्यापार हमारा है तो वह यह कह रहा होता है कि हमारे पास पूंजी का इतना अम्बार है कि देष में कही भी माईन या तेल या कोयला, खनिज मिलेगा उसे हम खरीद लेंगे। उडीसा में जब स्टरलाईट को खदान कार्य के लिए रोका जाता है तो वह अगले दिन सोनिया गांधी से मिलने पहुंच जाता है। पर्यावरण मंत्री जय राम रमेष को तब समझ में आता है कि पर्यावरण इस देष मे मुद्दा नही है। और स्टरलाईट खदान कार्य निरंतर जारी रखती है। पूंजी को खेलने के लिए जिन नियमों की जरूरत थी वह पिछले बीस बरसों में कही नजर नही आये और सरकारें पूंजी के आगे नतमस्तक होती रही।
आज पूंजी को बाजार में खेलने की खुली छूट दी गई उनमें एक आपत्ति दूसरे किस्म की है कि एक समय के बाद बाजार में पूंजी ही भाव तय करती है, सरकारें नही। आज यह आपत्ति अपने पूरे असर के साथ खडी है जब सरकार के प्रमुख लोग कहते है कि महंगार्इ्र उनके नियंत्रण में नही है। तेल के भाव भी जब बाजार तय करने लगेंगे जिसका सीधा सम्बन्ध महगाई से है, खाद्य वस्तुओं के टा्रंसपोर्टेषन से है तो महंगाई कैसे और क्यूं काबू आये यह समझा जा सकता है। तेल की कीमतों को बाजार के हवाले कर देने का मतलब है तेल कंपनियां अपने लाभ और हानि को खुद देखें। गोया कि तेल कंपनियों की बैलेंस षीट आम आदमी के जीवन से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गई है। और तेल कंपनियां तेल की कीमत निर्धारण में कितनी बेईमान है इसका हम सबको पता है। आज बाजार चीनी के दाम बढाता है, प्याज के दाम बढाता है, दाल, गेहूं और सब्जियों तक के दाम बढा देता है। विदेषी कंपनियां 700 रू क्विटल के हिसाब से गेहूं खरीद लेती है, भारत मे ही गेहू पडा रहता है, जब देष को जरूरत पडती है तो हमी को 1400 ये के हिसाब से बेच देते है। रिलांयस फ्रैष सेब के बाग से सेब, प्याज के खेत से प्याज सीधे उठाकर स्टोर कर लेता है और रिटेलर तक सीधा पहंुचता है तो कीमत तो मनमर्जी की ही वसूलेगा। पूंजी को खेलने का पूरा स्पेस दिया गया है, आम आदमी को चलने के लिए भी टोल टैक्स देना पडता है। प्याज स्टोर करने वालों को यह देष सबक सिखा सकता है यदि पूरा देष आदोलन में कूद पडे कि हम प्याज नही खाएंगे, आप स्टोर में रखिए लेकिन 50रू से जब 40 रू का भाव आता है तो हमें प्याज सस्ते लगने लगते है। पूंजी ऐसे ही बनाती और ऐसे ही बनती और बढती है।
तीसरा तर्क जो उदारीकरण के वक्त दिया गया वह था सरकार की निजी पूंजी पर निर्भरता। बढते भ्रश्टाचार के चलते यह तो अच्छा था कि निजी सैक्टर निर्माण कार्य में जुटें। दिल्ली के पुल और मैट्रो इसका अच्छा उदाहरण है, लेकिन देष का सडक जैसे मुख्य काम से हाथ खींच लेना और निजी कंपनियों को इस षर्त पर टुकडे बांट देना कि 25 साल तक यहां से गुजरने वाले वाहन से टोल टैक्स काटते रहो और सडक का यह टुकडा तुम्हारा, बेहद निंदनीय कार्य है। सडक जैसे मूलभूत काम को भी जब पूंजी के हवाले कर दिया गया है तो आम आदमी की तो सडक भी नही रही। कही नैनो भी जुगाड करके ले लेगा तो घर में ही खडी रखेगा या षार्ट कट ढूढेगा कि कहां टोल टैक्स नही है। आंध्रा में मैट्रो का ठेका सत्यम के राजू के बेटे माईटास कंपनी के मालिक को इसी षर्त पर दिया गया था मैट्रो आप बनाओ और 25 साल तक उसकी कमाई आपकी। राजू ने सत्यम उस ठेके में गवां दी। यदि वह सत्यम और माईटास वह गेम सिरे चढ जाती तो हैदराबाद में प्रोपर्टी घोटाले का फिगर हमारे कैलकुलेटर से बाहर होता। लेकिन सरकार ने यह छूट दे दी थी और सरकार सत्यम के राजू के आगे नतमस्तक थी।
पूंजी के खेल का जो फायदा देष के आम आदमी को होना था वह था कंपनियां की आपसी प्रतियोगिता में उत्पाद का सस्ते में उपलब्ध होना। लेकिन पूंजी का खेल खेलने वाले इतने बेवकूफ कभी नहीं होते की गला काट प्रतियोगिता में उलझ कर अपनी ही पूंजी से खिलवाड करेंगे। इस खेल में सिर्फ टेलीकॉम कंपनियां कूदी और उसका फायदा गा्रहकों को जरूर मिला। हालांकि इलैक्ट्रिक वस्तुएं संस्ती हुई, कंप्यूटर सस्ते हुए लेकिन आम आदमी का इन सबसे नजदीक का कोई वास्ता नही था। आम आदमी को घर बनाना था तो जमीन सस्ती नही रही, लोहा, सीमेट सस्ते नही रहे, आम आदमी को खाना खाना था तो दाल तक उसकी जेब से बाहर हो गई। रोटी कपडा और मकान से वंचित होता आम आदमी इस आर्थिक रूप से सक्षम भारत का एक दूसरा चेहरा है जिस पर सरकार की नजर नही है। आंकडों में सरकार हमेषा बाजीगरी करती आई है और गरीबी रेखा से नीचे वालो की संख्या में असरदार कमी दिखा रही है, हो सकता है कुछ हद तक कही सच्चाई हो लेकिन उदार भारत में पूंजी ने आम आदमी को बाहर कर दिया है यह सच है और सबसे बडी हार और हानि इस देष की इस चीज की हुई है कि पंूजी ने उन लोगों को भी खरीद लिया है जो आम आदमी की आवाज उठाते थे। इसलिए देष में 60 रू प्रति लीटर तेल, 50 रू किलो प्याज, 80 रू किलो दाल बिक जाती है और कोई आंदोलन नजर नही आता।
सरकार का सरदार मनमोहन सिंह रहे या आडवानी, पूंजी के प्रभाव में सब बंधे है। सिर्फ रटे रटाये षब्द है जिन्हे हम उच्चार कर अपने अतस को षंात कर लेते है कि पूजी के आगमन से रोजगार पैदा होता है। जबकि सच्चाई यह है कि पूंजी वही आती है जहां संसाधन और श्रम मौजूद होता है। इस देष के कर्णधारों से हमें पूछना चाहिए कि हम पूंजी के आगे इतने असहाय क्यो हुए कि अपने संसाधनो और श्रम की सही कीमत ही नही वसूल पाये।
सरकार का सरदार मनमोहन सिंह रहे या आडवानी, पूंजी के प्रभाव में सब बंधे है। सिर्फ रटे रटाये षब्द है जिन्हे हम उच्चार कर अपने अतस को षंात कर लेते है कि पूजी के आगमन से रोजगार पैदा होता है। जबकि सच्चाई यह है कि पूंजी वही आती है जहां संसाधन और श्रम मौजूद होता है। इस देष के कर्णधारों से हमें पूछना चाहिए कि हम पूंजी के आगे इतने असहाय क्यो हुए कि अपने संसाधनो और श्रम की सही कीमत ही नही वसूल पाये।
कवर स्टोरी : मम्मी-डैडी ने मारा!
आरुषि को न्याय का हक, दांव पर रिश्तों की साख
ऋषि पांडेय
'गिव आरुषि तलवार जस्टिस. सबसे ताकतवर सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक पर ये पेज सबसे लोकप्रिय हो रहा है. यहां करीब 12,000 लोग आरुषि हत्याकांड और कातिलों को सजा दिलाने को लेकर अपनी बात रख रहे हैं. भारत में इंटरनेट क्रांति की ये सबसे बड़ी बानगी है. ये भारत में इंटरनेट की बढ़ती सामाजिक ताकत और उसके मायनों को दर्शाता है.
जब से गाजियाबाद सीबीआई की विशेष अदालत ने इस दोहरे हत्याकांड में आरुषि के माता-पिता राजेश और नुपुर तलवार को आरोपी बनाया है, देशभर में ये बहस तेज हो गई है. तलवार दंपति पर हत्या, सबूतों को नष्ट करने और कॉमन क्रिमिनल कांसिपेरेसी रचने का मुकदमा चलेगा. दोनों को समन भेजा जा चुका है. 28 फरवरी को अदालत में पेश होंगे और चार्जेज फ्रेम करने के बाद ट्रायल का सामना करना पड़ेगा. राजेश तलवार फिलहाल जमानत पर हैं और गाजियाबाद सीबीआई कोर्ट के फैसले को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चैलेंज करने की तैयारी कर रहे हैं. वकीलों का एक बड़ा दल इस मामले को ड्राफ्ट करने में जुटा है लेकिन परिस्थिति जन्य साक्ष्य तलवार के खिलाफ हैं. इसलिए वकीलों के पसीने छूट रहे हैं.
देश की सबसे बड़ी मर्डर मिस्ट्री को सुलझाने में जुटी देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी सीबीआई अब तक ये साफ नहीं कर पायी है कि अगर हत्या मां बाप ने ही की है, ये मान लिया जाए भी, तो लेकिन क्यूं. मर्डर का मोटिव यानी वजह क्या है? इसका पुख्ता कोई जवाब तो सीबीआई के पास नहीं है. लेकिन इशारा ऑनर किलिंग की तरफ है. यानी सामाजिक प्रतिष्ठा को कायम रखने के लिए हत्या. लेकिन राजेश और नुपुर तलवार की इकलौती संतान, 14 वर्षीय उनकी बेटी आरुषि ने आखिर ऐसा क्या कर दिया था. जिसकी वजह से उसकी जान लेने की जरूरत आन पड़ी या मजबूरी बन गई.
ये जवाब जांच एजेंसी को जुटाना होगा, या राजेश और नुपुर तलवार से प्रामाणिक तौर पर उगलवाना होगा, तभी ये मामला कोर्ट में ट्रालय के दौरान स्टैंड कर पाएगा. सीबीआई के पास मैटीरियल एविडेंस के नाम पर कुछ भी नहीं है, न तो आला ए कत्ल है और न ही कातिल के खून से सने कपड़े. आरुषि का मोबाइल दो साल बाद यूपी से बरामद हुआ था, लेकिन उससे कुछ हासिल नहीं हुआ. नौकर हेमराज के मोबाइल का तो अब तक कोई अता पता नहीं है. ये सब कुछ ऐसे सिरदर्द हैं जिसका सामना करने से सीबीआई बचना चाहती थी. शायद इसीलिए उसने कोर्ट के शीतकालीन छुट्टियों के दौरान चुपचाप क्लोजर रिपोर्ट दाखिल कर दिया. सीबीआई के पूर्व निदेशक जोगिंद्र सिंह सीबीआई का बचाव करते हुए कहते हैं, 'जरूरी नहीं सीबीआई सब केसेज को सॉल्व ही कर दे, बहुत से मर्डर केस इतने ब्लाइंड होते हैं और कातिल इतना शातिर होता है कि सबूत जुटाना और उसे सज़ा दिला पाना जांच एजेंसी के लिए असंभव सा हो जाता है. इस मामले में भी हालात कुछ ऐसे ही थे. इसलिए क्लोजर रिपोर्ट लगानी पड़ी.
लेकिन इसके ठीक उलट दिल्ली के सीनियर क्रिमिनल लायर केटीएस तुलसी कहते हैं कि 'परिस्थितिजन्य साक्ष्य भी साक्ष्य ही होते हैं, और इनकी बिनाह पर भी चार्जशीट दाखिल कर कातिल को सजा दिलाई जा सकती है. और अगर सरकम्सटांशियल एविडेंस तलवार के खिलाफ हैं तो तलवार पर हत्या का मुकदमा चलना चाहिए.
तुलसी की बात में दम है, और शायद यही बात सीबीआई की स्पेशल जज प्रीति शर्मा के दिमाग में भी रही होगी कि क्लोजर रिपोर्ट को स्वीकार कर और केस को बंद करके न्याय की उम्मीद को पूरी तरह खत्म करने से अच्छा है कि क्लोजर रिपोर्ट को चार्जशीट में तब्दील कर तलवार दंपती पर हत्या का मुकदमा चलाया जाए.
इस रिपोर्ट में सीबीआई ने जिन आठ गवाहों का जिक्र किया है, उनके बयानों और तलवार की हत्या की रात और हत्या के बाद की गतिविधियों शक को और मजबूत करती हैं. (देखें बॉक्स-तलवार की तीन भूल) तलवार की गलतियों और उसके जानकारों के बयानों ने ही सीबीआई के शिकंजे को मजबूत कर दिया है.
28 फरवरी को अदालत में तलवार दंपती की पेशी के बाद ये मर्डर मिस्ट्री नए मोड़ ले सकती है. मीडिया खासतौर पर न्यूज चैनलों को संयम से काम लेना चाहिए और जो न्याय की उम्मीद जगी है, उस उम्मीद को जिंदा रखना चाहिए.
जेसिका लाल, नीतिश कटारा, प्रियदर्शिनी मट्टू और रुचिका जैसे मामलों में समाज और मीडिया ने जिस तरह आगे आकर न्याय की उम्मीद के चिराग को जलाए रखा, क्या ये आरुषि के मामले में भी तार्किक परिणति तक पहुंच पाएगा. ये तो वक्त तय करेगा लेकिन इस मामले की रहस्य-कथा न्याय और अपराध में रुचि रखने वालों के लिए मॉडल केस स्टडी मैटीरियल बना रहेगा.
कब-कब क्या हुआ
16 मई 2008-आरुषि की लाश उसके कमरे से मिली
17 मई-हेमराज का शव तलवार के घर से मिला
18 मई-नोएडा पुलिस ने कहा-सर्जिकल ब्लेड से हुई हत्या
19 मई-तलवार के पुराने नौकर विष्णु पर शक
22 मई-आरुषि के माता-पिता पर शक
23 मई-राजेश तलवार गिरफ्तार
1 जून-जांच शुरू की सीबीआई ने
13 जून-तलवार का कंपाऊंडर कृष्णा गिरफ्तार
20 जून-राजेश तलवार का लाई डिटेक्शन टेस्ट
25 जून-मां नुपुर तलवार का लाई डिटेक्शन टेस्ट
26 जून-सीबीआई ने कहा, ब्लाइंड मर्डर केस
12 जुलाई-राजेश तलवार जेल से रिहा
4 सितंबर 2009-हैदराबाद की सीडीएफडी लैब ने कहा, सैंपल सही नहीं
5 जनवरी 2010-सीबीआई ने क्लोजर रिपोर्ट दाखिल किया लेकिन तलवार दंपती पर शक
3 जनवरी 2011-अदालत ने क्लोजर रिपोर्ट का परीक्षण किया
बदलती रही जांच टीम-हत्यारे पकड़ से बाहर
इस सनसनीखेज हत्याकांड की जांच पहले नोएडा पुलिस ने शुरू की. लेकिन धरनास्थल की सही जांच में पहले दिन से लापरवाही बरती गई. 17 मई को छत से हेमराज की लाश मिलने के बाद पुलिस की बेहद किरकिरी हुई और 18 मई को यूपी एसटीएफ ने जांच शुरू की. 23 मई को नोएडा पुलिस ने राजेश तलवार को गिरफ्तार कर केस को सॉल्व करने का दावा किया. लेकिन 29 मई को उत्तर प्रदेश सरकार की संस्तुति पर मामला सीबीआई को सौंप दिया गया. अरुण कुमार के नेतृत्व में जांच शुरू हुई जिसमें राजेश तलवार को क्लीन चिट दिया गया और जेल से रिहा किया गया.
चार सितंबर 2009 का सनसनीखेज खुलासा हुआ जब हैदराबाद की सीडीएफडी लैब ने कहा कि सीबीआई ने जो सैंपल जांच के लिए भेजे हैं, वो आरुषि के हैं ही नहीं. इस खुलासे के बाद अरुण कुमार को जांच से हटाकर नई टीम बना दी गई. नई टीम ने 29 दिसंबर 2010 को क्लोजर रिपोर्ट दाखिल कर कहा कि उसे शक तो तलवार दंपती पर है लेकिन पर्याप्त सबूत नहीं हैं. अदालत ने इसी क्लोजर रिपोर्ट को चार्जशीट मानते हुए तलवार दंपती को आरोपी बनाया.
नौकरों को बेवजह मिली सज़ा का हिसाब कौन देगा?
चार सितंबर 2009 का सनसनीखेज खुलासा हुआ जब हैदराबाद की सीडीएफडी लैब ने कहा कि सीबीआई ने जो सैंपल जांच के लिए भेजे हैं, वो आरुषि के हैं ही नहीं. इस खुलासे के बाद अरुण कुमार को जांच से हटाकर नई टीम बना दी गई. नई टीम ने 29 दिसंबर 2010 को क्लोजर रिपोर्ट दाखिल कर कहा कि उसे शक तो तलवार दंपती पर है लेकिन पर्याप्त सबूत नहीं हैं. अदालत ने इसी क्लोजर रिपोर्ट को चार्जशीट मानते हुए तलवार दंपती को आरोपी बनाया.
नौकरों को बेवजह मिली सज़ा का हिसाब कौन देगा?
आरुषि हेमराज की हत्या और अरुण कुमार के नेतृत्व में सीबीआई की जांच ने तीन बेकसूर नौकरों की जिंदगी बदल कर रख दी. राजेश तलवार के कंपाऊंडर कृष्णा को तीन महीने जेल में काटने पड़े और आज वो एक न्यूज चैनल में कार चला रहा है. तलवार के दोस्त डॉ. अनिता दुर्रानी के नौकर राजकुमार को भी आरोपी बनाकर जेल भेजा गया. आजकल वो नेपाल में है. पड़ोसी के एक और नौकर विजय मंडल को भी जेल भेजा गया. बाद में वो भी अदालत से बरी हुआ और अब वो बिहार के अपने गांव में रहता है. नौकरों के वकील अब अरुण कुमार और उनकी टीम के सदस्यों पर मुकदमा करने की तैयारी में हैं. सवाल ये है कि इन नौकरों का जीवन जिस तरह बर्बाद हुआ और बदनामी हुई उसका हिसाब तो अरुण कुमार से ही पूछा जाना चाहिए.
क्या तत्कालीन नोएडा पुलिस की जांच सही नहीं थी
क्या तत्कालीन नोएडा पुलिस की जांच सही नहीं थी
तमाम गलतियों के बावजूद नोएडा पुलिस ने हफ्तेभर में जिस तरह केस को सॉल्व किया था, 941 दिन बाद देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी सीबीआई भी उसी नतीजे पर पहुंची है. जब यही करना था तो राजेश तलवार की गिरफ्तारी को तब गलत ठहराकर उन्हें क्लीनचिट कैसे मिल गई? नौकरों को ख्वामखाह क्यों बलि का बकरा बनाया गया. ये सवाल नोएडा पुलिस के तत्कालीन अधिकारी पूछ रहे हैं. नोएडा के तत्कालीन पुलिस कप्तान सतीश गणेश को गलत ठहराकर बलि का बकरा बनाया गया था. उनका ट्रांसफर कर दिया गया था और आज यूपी पुलिस महकमे में कहीं गुमनामी की जिंदगी जी रहे हैं.
तलवार की तीन भूल
तलवार की तीन भूल
ज्यों ज्यों आरुषि हत्याकांड की जांच की परतें खुल रही हैं त्यों त्यों राजेश तलवार के इर्द गिर्द शिकंजा मजबूत होता जा रहा है. क्लोजर रिपोर्ट में आठ गवाहों के बयानों से सीबीआई का केस मजबूत होता जा रहा है. कहते हैं हत्यारा कितना भी शातिर और पढ़ा लिखा क्यों न हो, सबूत मिटाते वक्त वो खुद कुछ ऐसी गलतियां करता है जिससे जांच एजेंसी के जाल में फंस ही जाता है. हां, अपराधी शातिर हो तो उसकी गर्दन तक पहुंचने में थोड़ा वक्त जरूर लगता है. आरुषि मामले में भी डॉ. राजेश और नुपुर तलवार ने तीन ऐसी भूल की और फंस गए सीबीआई के शिकंजे में. सीबीआई ने जो आठ गवाह बनाए हैं, उनमें ज्यादातर तलवार के जानने वाले हैं और जाने अनजाने सीबीआई और मजिस्ट्रेट के सामने उन्होंने वो सच उगल दिया जिसमें तलवार फंसते चले गए. तलवार की पहली भूल है-पुलिस के आने से पहले घर की साफ सफाई और आरुषि के कमरे से छेड़छाड़ करना. डॉ. तलवार के जानकार डॉ. रोहित कोचर और राजीव वाष्र्णेय ने सीबीआई को बताया कि वे दोनों पुलिस के आने से पहले एल-32 में पहुंचे थे और साफ सफाई, पोंछा मारने के निशान देखे. रोहित और राजीव ने डॉ. तलवार से सीढिय़ों पर पड़े खून के छींटे और छत के दरवाजे के हैंडल पर लगे खून के बारे में भी बताया था. छत पर ताला बंद था और डॉ. तलवार ने छत का ताला खोलकर खून के बारे में जानने की कोशिश नहीं की, क्योंकि वे जानते थे छत पर हेमराज की लाश पड़ी थी. तलवार की दूसरी बड़ी भूल ये थी कि हत्या के दूसरे ही दिन उन्होंने पेंटर शोहरत को बुलाकर आरुषि के घर का पार्टिशन पेंट करने और ग्रिल हटाने को कहा था. शोहरत को डॉ. तलवार 1992 से जानते थे और पेंट करने के लिए उसे 25 हजार रुपए दिए गए. शोहरत ने ये बयान सीबीआई और मजिस्ट्रेट के सामने दिया है, जो सबूत नष्ट करने के मामले में तलवार के लिए मुश्किलें खड़ी करेगा. तलवार की तीसरी बड़ी भूल थी-राजेश तलवार के बड़े भाई दिनेश तलवार का आरुषि का पोस्टमार्टम करने वाले डॉ. सुनील दोहरे को फोन करना और किसी बड़े डॉक्टर का हवाला देकर पोस्टमार्टम रिपोर्ट को प्रभावित करना. सीबीआई ने डॉ. सुनील दोहरे को भी गवाह बनाया है. ये तीन ऐसी बड़ी गलतियां हैं जो डॉ. तलवार और उनकी पत्नी के लिए गले की फांस बन गई हैं. तलवार दंपती के वकीलों के पसीने छूट रहे हैं कि इनकी काट कैसे तैयार की जाए. क्योंकि तलवार परिवार गाजियाबाद सीबीआई विशेष अदालत के फैसले को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती देने पर विचार कर रहा है.
कत्ल तो हेमराज का भी हुआ था
कत्ल तो हेमराज का भी हुआ था
16 मई को आरुषि मर्डर केस में नोएडा सेक्टर 34 थाने में जो एफआईआर दर्ज हुई उसमें हेमराज को हत्यारा ठहराया गया था. 16 मई की सुबह कहानी बड़ी साफ दिख रही थी कि घर का नौकर हेमराज आरुषि का कत्ल कर फरार हो गया है. क्योंकि घर में लड़की की लाश और घर से नौकर फरार. पुलिस की जांच को गुमराह करने के लिए डॉ. राजेश तलवार भी पुलिस से बार-बार निवेदन कर रहे थे कि हेमराज को ढूंढि़ए. दहाड़ कर रो रहे थे कि हेमराज ने मेरी बेटी को मार डाला, लेकिन अपने दोस्तों के कहने पर और यहां तक कि पुलिस के कहने पर भी छत के ताले की चाभी नहीं दे रहे थे, क्योंकि वे जानते थे छत पर हेमराज की लाश पड़ी थी. पुलिस ने डॉ. तलवार के कहने पर रेलवे और बस अड्डों पर हेमराज की तलाश शुरू कर दी और एक टीम नेपाल भी भेज दी जहां का हेमराज रहने वाला था. 17 मई को सुबह 11 बजे तक हेमराज लोगों की नजऱ में एक विलेन था. सब कह रहे थे नौकरों का कोई भरोसा नहीं, कुछ भी कर सकते हैं, आदि-आदि....
कहानी में ट्विस्ट तब आया जब रिटायर्ड डीसीपी केके गौतम की एंट्री हुई और मीडिया की मौजूदगी में छत का ताला तोड़ा गया. छत पर हेमराज की लाश पड़ी थी, कूलर के ढ़क्कन से इसे ढंक दिया था. मुझे याद है, हेमराज का कत्ल बड़ी बेरहमी से किया गया था, उसका गला रेत कर हत्या की गई थी.
कहानी पलट गई, सनसनी फैल गई और मीडिया के कैमरे टूट पड़े छत की तरफ, और दर्जनों ओबी वैन जलवायु विहार की ओर. पुलिस का माथा ठनका, पैरों के नीचे से जमीन खिसक चुकी थी. पुलिस के आला अधिकारी मौके पर पहुंचे. हेमराज की लाश को पोस्टमार्टम के लिए भेजा गया. पुलिस कप्तान ने पहला फोन पुलिस की उस टीम को मिलाया जिसे हेमराज को तलाशने के लिए नेपाल भेजा गया था. कप्तान बोले वापस आ जाओ, हेमराज की लाश छत से बरामद हो गई है.
पुलिस कप्तान ने दूसरा फोन डॉ. राजेश तलवार को मिलाया-पूछा कहां हैं आप? आपके नौकर की लाश छत से मिल गई है, आकर शिनाख्त कीजिए. तलवार ने कहा मैं तो आरुषि की अस्थियां गंगा में बहाने के लिए हरिद्वार जा रहा हूं, रास्ते में हूं, वापस लौटकर बात करूंगा. ये कहकर तलवार ने फोन काट दिया. इसी बीच तलवार ने न सिर्फ फ्लैट की साफ सफाई करवा दी थी बल्कि आरुषि की अंत्येष्टि कर अस्थियां विसर्जित करने हरिद्वार निकल चुके थे. हेमराज की उम्र 50 साल के करीब थी. वो नेपाली थी, खाना अच्छा बनाता था, कम बोलता था और शराब नहीं पीता था. हेमराज का परिवार नेपाल में ही आज भी रहता है. इसकी पत्नी ज्यादातर बीमार रहती है, दिल्ली में एक बार सफदरजंग में इलाज के लिए आई थी तब हमने उससे मुलाकात की. उसका परिवार बेहद गरीब है. हेमराज का दामाद जीवन आज भी नोएडा में ही एक व्यवसायी समीर अटोरा का घरेलू नौकर है. नोएडा पुलिस ने हेमराज की तलाश में उसकी खूब पिटाई की थी, बाद में लाश मिलने पर जीवन को छोड़ दिया गया. बाद में उसी एफआईआर को दोहरे हत्याकांड में बदला गया और इस दोहरे हत्याकांड में अब तलवार दंपती आरोपी हैं. उम्मीद है आरुषि के साथ साथ हेमराज को भी न्याय मिलेगा, वो नौकर था तो क्या हुआ, उसका गुनाह सिर्फ ये था कि वो गलत समय में गलत जगह मौजूद था. हत्या का गवाह बन गया था इसलिए जान से भी हाथ धोना पड़ा.
कहानी में ट्विस्ट तब आया जब रिटायर्ड डीसीपी केके गौतम की एंट्री हुई और मीडिया की मौजूदगी में छत का ताला तोड़ा गया. छत पर हेमराज की लाश पड़ी थी, कूलर के ढ़क्कन से इसे ढंक दिया था. मुझे याद है, हेमराज का कत्ल बड़ी बेरहमी से किया गया था, उसका गला रेत कर हत्या की गई थी.
कहानी पलट गई, सनसनी फैल गई और मीडिया के कैमरे टूट पड़े छत की तरफ, और दर्जनों ओबी वैन जलवायु विहार की ओर. पुलिस का माथा ठनका, पैरों के नीचे से जमीन खिसक चुकी थी. पुलिस के आला अधिकारी मौके पर पहुंचे. हेमराज की लाश को पोस्टमार्टम के लिए भेजा गया. पुलिस कप्तान ने पहला फोन पुलिस की उस टीम को मिलाया जिसे हेमराज को तलाशने के लिए नेपाल भेजा गया था. कप्तान बोले वापस आ जाओ, हेमराज की लाश छत से बरामद हो गई है.
पुलिस कप्तान ने दूसरा फोन डॉ. राजेश तलवार को मिलाया-पूछा कहां हैं आप? आपके नौकर की लाश छत से मिल गई है, आकर शिनाख्त कीजिए. तलवार ने कहा मैं तो आरुषि की अस्थियां गंगा में बहाने के लिए हरिद्वार जा रहा हूं, रास्ते में हूं, वापस लौटकर बात करूंगा. ये कहकर तलवार ने फोन काट दिया. इसी बीच तलवार ने न सिर्फ फ्लैट की साफ सफाई करवा दी थी बल्कि आरुषि की अंत्येष्टि कर अस्थियां विसर्जित करने हरिद्वार निकल चुके थे. हेमराज की उम्र 50 साल के करीब थी. वो नेपाली थी, खाना अच्छा बनाता था, कम बोलता था और शराब नहीं पीता था. हेमराज का परिवार नेपाल में ही आज भी रहता है. इसकी पत्नी ज्यादातर बीमार रहती है, दिल्ली में एक बार सफदरजंग में इलाज के लिए आई थी तब हमने उससे मुलाकात की. उसका परिवार बेहद गरीब है. हेमराज का दामाद जीवन आज भी नोएडा में ही एक व्यवसायी समीर अटोरा का घरेलू नौकर है. नोएडा पुलिस ने हेमराज की तलाश में उसकी खूब पिटाई की थी, बाद में लाश मिलने पर जीवन को छोड़ दिया गया. बाद में उसी एफआईआर को दोहरे हत्याकांड में बदला गया और इस दोहरे हत्याकांड में अब तलवार दंपती आरोपी हैं. उम्मीद है आरुषि के साथ साथ हेमराज को भी न्याय मिलेगा, वो नौकर था तो क्या हुआ, उसका गुनाह सिर्फ ये था कि वो गलत समय में गलत जगह मौजूद था. हत्या का गवाह बन गया था इसलिए जान से भी हाथ धोना पड़ा.
Letter to Editor
बदलाव की गुंजाइश
टोटल स्टेट में छपी स्टोरी नीतिश कुमार की कामयाबी का राज में मटुक जी ने बिहार में लालू-नीतिश की कार्यशैली का विवरण दिया. वास्तव में लालू के कार्यकाल में ही बिहार की स्थिति ऐसी नहीं थी. पिछले 50 साल में जिन हालात में बिहार जी रहा था, इसमें बदलाव की कोई जरूरत लालू प्रसाद ने नहीं समझी. बिहार में जातिवाद, अनपढ़ता, बेरोजगारी, गुंडागर्दी जैसी अनेक समस्याएं लालू-राबड़ी के काल में रहीं. इनमें बदलाव की गुंजाइश को समझते हुए नीतिश ने सही रणनीति अपनाकर बिहार का चेहरा बदलने की कोशिश की. ये कोशिश कहां तक सार्थक व कामयाब रही इसका प्रत्यक्ष उदाहरण अभी हुए विधानसभा चुनाव थे परंतु अभी भी बिहार का आंतरिक परिदृश्य बदलने की जरूरत है. शायद नीतिश जी इसमें भी जीत हासिल करें.
-शिवनारायण सिंह, पटना.
उपेक्षित महिलाओं का दर्द
डॉ. वीरेंद्र सिंह का स्त्री चिंतन कई बातों पर प्रश्न चिह्न लगाता है. इस देश में आदिकाल से महिलाओं को उपेक्षित, प्रताडि़त एवं अयोग्य बनाया गया है. उन्हें कभी सती प्रथा, कभी कन्या भ्रूण हत्या, कभी निरक्षरता की आग में जलना पड़ता है. महिलाओं से उनके अधिकार जबरन छीने लगए या यूं कहें कि उनके अधिकार प्रतिबंधित थे. महिलाओं को उनके अधिकार दिलाने के लिए भारत में समय-समय पर आंदोलन चले और उनकी लहर में कितने ही अमानवीय नियम भी बह गए. मुख्य रूप से महिलाओं को अधिकार दिलाने के लिए रामकृष्ण परमहंस से लेकर महात्मा ज्योतिबा फूले, डा. अंबेडकर, भगवान महावीर आदि ने अनेक आंदोलन चलाए. आज महिलाएं बेशक शीर्षस्थ पदों पर आसीन हैं लेकिन गांव में स्थितियां आज भी प्रतिकूल हैं. शायद उनकी हालत में सुधार हो सके.
-आलोक श्रीवास्तव, लखनऊ
याद रहेगा साल 2010
आपकी पत्रिका में छपा लेख गुजरा हुआ जमाना, आता नहीं दोबारा, अच्छा है. पिछला साल देश को कई खट्टे-मीठे अनुभव दे गया और एक नजर से तो साल 2010 घोटालों का ही साल रहा जिसने पूरे विश्व में भारत की इज्जत को बट्टा लगाया. चाहे वो कॉमनवेल्थ गेम्स हों, 2 जी स्पेक्ट्रम मामला हो या आदर्श हाउसिंग सोसायटी का मामला हो. जिसे भी मौका मिला, उसी ने भ्रष्टाचार की बहती नदी में हाथ धोने से गुरेज नहीं किया. देश में हुए 2 जी स्पेक्ट्रम जैसे महाघोटाले में मंत्री ही नहीं सरकारी कर्मचारियों से लेकर बड़े मीडिया घरानों के नाम भी शामिल हैं. कुल मिलाकर ऊपर से लेकर नीचे तक हर व्यक्ति भ्रष्टाचार में लिप्त पाया गया. इसी के साथ गुजरे साल में दुनिया के पांच शक्तिशाली देशों के राष्ट्राध्यक्ष भी भारत आए और भारत की शक्ति को पहचाना. भारत को यूएनओ की सदस्यता का अमेरिका जैसे देश ने समर्थन किया. कुल मिलाकर भारत के इतिहास में बीता वर्ष महत्वपूर्ण वर्ष के रूप में याद किया जाएगा.
संजय गोयल, हिसार.
भारतीयता को भुलाता भारत
टोटल स्टेट में प्रकाशित लेख भारतीय शिक्षा पद्धति की विनाशलीला पढ़ा. लेख पढ़कर ऐसा लगा जैसे देश भारतीयता को भुला रहा है. अपनी माटी, अपनी भाषा और अपनी संस्कृति को छोड़ता जा रहा है. इसमें कभी आम आदमी की कम लेकिन शासनतंत्र की कमी ज्यादा दिखाई देती है. सरकारी कार्यालयों में तख्तियों पर तो लिखा होता है कि मातृभाषा का सम्मान करें और कामकाज हिंदी में करें लेकिन उन्हीं कार्यालयों में तमाम काम अंग्रेजी में होता है. अंग्रेजी मानसिकता हमारे ऊपर हावी होती जा रही है. देश के अग्रणी अंग्रेजी माध्यम विद्यालयों में तो आम बोलचाल भी हिंदी में नहीं कर पाते बच्चे. हर तरफ अंग्रेजी का बोलबाला है और हिंदी अपने ही देश में पराई लगने लगी है. भारतीय शिक्षा पद्धति देश से लुप्त हो रही है जो अच्छा संकेत नहीं है.
राजेश भारती, कुरुक्षेत्र.
झारखंड में भी भेजें पत्रिका
एक मित्र के घर टोटल स्टेट पत्रिका का अंक देखा. आवरण पृष्ठ देखकर पत्रिका अच्छी लगी तो पढ़ ली. काफी अच्छा प्रयास है दऔर लेख भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर के हैं. आपसे पाठकों को बहुत आशाएं हैं क्योंकि आपने सच लिखने की हिम्मत जुटाई है. पत्रिका को रंगीन करने का प्रयास करें ताकि पाठक संख्या और अधिक बढ़ सके. झारखंड के बुक स्टॉल्स पर भी भिजवाएं पत्रिका, अच्छा रिस्पांस मिलेगा और यहां का पाठकवर्ग भी टोटल स्टेट के साथ जुड़ पाएगा.
रवींद्रनाथ (रांची)
जनवरी माह की आवरण कथा 'बदल देगा जीवन वर्ष 2011 में वर्तमान वर्ष में सरकार के लक्ष्यों की बात लिखी गई है जिसमें स्वास्थ्य, शिक्षा, इन्फ्रास्ट्रक्चर, इकॉनोमी और तकनीक क्षेत्र विशेष हैं. जहां तक स्वास्थ्य की बात है आज देश में लाखों लोग केवल धनाभाव के चलते मौत का ग्रास बने रहें हैं. राजकीय अस्पतालों की व्यवस्था ऐसी घृणित है कि लोग अस्पतालों में कैदियों की जीवन जी रहें हैं. देश के राजकीय अस्पतालों में सीटी स्कैन, एक्स-रे व हिमोडायलिसिस जैसी आवश्यक मशीने या तो हैं ही नहीं और अगर किसी अस्पताल में है भी तो वे सफेद हाथी साबित हो रही हैं. इसी कारण आम आदमी मोटे ब्याज पर साहूकारों से कर्जा लेकर अपने परिवारजनों का ईलाज निजी अस्पतालों में करवाने को मजबूर हैं. शायद वित्त वर्ष में अस्पतालों की दशा-दिशा बदल जाए.
बात जहां शिक्षा की आती है. आंकड़ों के मुताबिक देश के करोड़ों बच्चे केवल इसलिए विद्यालयों में नहीं जा पाते कि उनके घर में पैसा नहीं है. माना कि आज सरकारी नीतियों केे अनुसार न के बराबर पैसों में सरकारी विद्यालयों में शिक्षा दी जा रही है. लेकिन देश के तकदीरदार कभी राजकीय पाठशालाओं में जा कर वहां की व्यवस्था देखेंगे तो शर्म से सर झुक जाएगा. सरकारी विद्यालयों में शिक्षा प्राप्त करने आए बच्चों से अध्यापक अपने निजी काम करवाते हैं. गांवों में मुफ्त दुध-दही, घी, अनाज इत्यादी वसूलते हैं. इस परिस्थति में निजी विद्यालयों से सरकारी विद्यालयों का खर्चा ज्यादा मालूम पड़ता है.
देश में आज लाखों परिवार बिना छत के खुले आसमान तले सोने को मजबूर हैं. क्या भारत सरकार इस ओर भी ध्यान प्रदान करेगी. इसी आशा से आज भारत का हर गरीब सरकार की तरफ आंखें लगाए बैठा है.
टोटल स्टेट में छपी स्टोरी नीतिश कुमार की कामयाबी का राज में मटुक जी ने बिहार में लालू-नीतिश की कार्यशैली का विवरण दिया. वास्तव में लालू के कार्यकाल में ही बिहार की स्थिति ऐसी नहीं थी. पिछले 50 साल में जिन हालात में बिहार जी रहा था, इसमें बदलाव की कोई जरूरत लालू प्रसाद ने नहीं समझी. बिहार में जातिवाद, अनपढ़ता, बेरोजगारी, गुंडागर्दी जैसी अनेक समस्याएं लालू-राबड़ी के काल में रहीं. इनमें बदलाव की गुंजाइश को समझते हुए नीतिश ने सही रणनीति अपनाकर बिहार का चेहरा बदलने की कोशिश की. ये कोशिश कहां तक सार्थक व कामयाब रही इसका प्रत्यक्ष उदाहरण अभी हुए विधानसभा चुनाव थे परंतु अभी भी बिहार का आंतरिक परिदृश्य बदलने की जरूरत है. शायद नीतिश जी इसमें भी जीत हासिल करें.
-शिवनारायण सिंह, पटना.
उपेक्षित महिलाओं का दर्द
डॉ. वीरेंद्र सिंह का स्त्री चिंतन कई बातों पर प्रश्न चिह्न लगाता है. इस देश में आदिकाल से महिलाओं को उपेक्षित, प्रताडि़त एवं अयोग्य बनाया गया है. उन्हें कभी सती प्रथा, कभी कन्या भ्रूण हत्या, कभी निरक्षरता की आग में जलना पड़ता है. महिलाओं से उनके अधिकार जबरन छीने लगए या यूं कहें कि उनके अधिकार प्रतिबंधित थे. महिलाओं को उनके अधिकार दिलाने के लिए भारत में समय-समय पर आंदोलन चले और उनकी लहर में कितने ही अमानवीय नियम भी बह गए. मुख्य रूप से महिलाओं को अधिकार दिलाने के लिए रामकृष्ण परमहंस से लेकर महात्मा ज्योतिबा फूले, डा. अंबेडकर, भगवान महावीर आदि ने अनेक आंदोलन चलाए. आज महिलाएं बेशक शीर्षस्थ पदों पर आसीन हैं लेकिन गांव में स्थितियां आज भी प्रतिकूल हैं. शायद उनकी हालत में सुधार हो सके.
-आलोक श्रीवास्तव, लखनऊ
याद रहेगा साल 2010
आपकी पत्रिका में छपा लेख गुजरा हुआ जमाना, आता नहीं दोबारा, अच्छा है. पिछला साल देश को कई खट्टे-मीठे अनुभव दे गया और एक नजर से तो साल 2010 घोटालों का ही साल रहा जिसने पूरे विश्व में भारत की इज्जत को बट्टा लगाया. चाहे वो कॉमनवेल्थ गेम्स हों, 2 जी स्पेक्ट्रम मामला हो या आदर्श हाउसिंग सोसायटी का मामला हो. जिसे भी मौका मिला, उसी ने भ्रष्टाचार की बहती नदी में हाथ धोने से गुरेज नहीं किया. देश में हुए 2 जी स्पेक्ट्रम जैसे महाघोटाले में मंत्री ही नहीं सरकारी कर्मचारियों से लेकर बड़े मीडिया घरानों के नाम भी शामिल हैं. कुल मिलाकर ऊपर से लेकर नीचे तक हर व्यक्ति भ्रष्टाचार में लिप्त पाया गया. इसी के साथ गुजरे साल में दुनिया के पांच शक्तिशाली देशों के राष्ट्राध्यक्ष भी भारत आए और भारत की शक्ति को पहचाना. भारत को यूएनओ की सदस्यता का अमेरिका जैसे देश ने समर्थन किया. कुल मिलाकर भारत के इतिहास में बीता वर्ष महत्वपूर्ण वर्ष के रूप में याद किया जाएगा.
संजय गोयल, हिसार.
भारतीयता को भुलाता भारत
टोटल स्टेट में प्रकाशित लेख भारतीय शिक्षा पद्धति की विनाशलीला पढ़ा. लेख पढ़कर ऐसा लगा जैसे देश भारतीयता को भुला रहा है. अपनी माटी, अपनी भाषा और अपनी संस्कृति को छोड़ता जा रहा है. इसमें कभी आम आदमी की कम लेकिन शासनतंत्र की कमी ज्यादा दिखाई देती है. सरकारी कार्यालयों में तख्तियों पर तो लिखा होता है कि मातृभाषा का सम्मान करें और कामकाज हिंदी में करें लेकिन उन्हीं कार्यालयों में तमाम काम अंग्रेजी में होता है. अंग्रेजी मानसिकता हमारे ऊपर हावी होती जा रही है. देश के अग्रणी अंग्रेजी माध्यम विद्यालयों में तो आम बोलचाल भी हिंदी में नहीं कर पाते बच्चे. हर तरफ अंग्रेजी का बोलबाला है और हिंदी अपने ही देश में पराई लगने लगी है. भारतीय शिक्षा पद्धति देश से लुप्त हो रही है जो अच्छा संकेत नहीं है.
राजेश भारती, कुरुक्षेत्र.
झारखंड में भी भेजें पत्रिका
एक मित्र के घर टोटल स्टेट पत्रिका का अंक देखा. आवरण पृष्ठ देखकर पत्रिका अच्छी लगी तो पढ़ ली. काफी अच्छा प्रयास है दऔर लेख भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर के हैं. आपसे पाठकों को बहुत आशाएं हैं क्योंकि आपने सच लिखने की हिम्मत जुटाई है. पत्रिका को रंगीन करने का प्रयास करें ताकि पाठक संख्या और अधिक बढ़ सके. झारखंड के बुक स्टॉल्स पर भी भिजवाएं पत्रिका, अच्छा रिस्पांस मिलेगा और यहां का पाठकवर्ग भी टोटल स्टेट के साथ जुड़ पाएगा.
रवींद्रनाथ (रांची)
जनवरी माह की आवरण कथा 'बदल देगा जीवन वर्ष 2011 में वर्तमान वर्ष में सरकार के लक्ष्यों की बात लिखी गई है जिसमें स्वास्थ्य, शिक्षा, इन्फ्रास्ट्रक्चर, इकॉनोमी और तकनीक क्षेत्र विशेष हैं. जहां तक स्वास्थ्य की बात है आज देश में लाखों लोग केवल धनाभाव के चलते मौत का ग्रास बने रहें हैं. राजकीय अस्पतालों की व्यवस्था ऐसी घृणित है कि लोग अस्पतालों में कैदियों की जीवन जी रहें हैं. देश के राजकीय अस्पतालों में सीटी स्कैन, एक्स-रे व हिमोडायलिसिस जैसी आवश्यक मशीने या तो हैं ही नहीं और अगर किसी अस्पताल में है भी तो वे सफेद हाथी साबित हो रही हैं. इसी कारण आम आदमी मोटे ब्याज पर साहूकारों से कर्जा लेकर अपने परिवारजनों का ईलाज निजी अस्पतालों में करवाने को मजबूर हैं. शायद वित्त वर्ष में अस्पतालों की दशा-दिशा बदल जाए.
बात जहां शिक्षा की आती है. आंकड़ों के मुताबिक देश के करोड़ों बच्चे केवल इसलिए विद्यालयों में नहीं जा पाते कि उनके घर में पैसा नहीं है. माना कि आज सरकारी नीतियों केे अनुसार न के बराबर पैसों में सरकारी विद्यालयों में शिक्षा दी जा रही है. लेकिन देश के तकदीरदार कभी राजकीय पाठशालाओं में जा कर वहां की व्यवस्था देखेंगे तो शर्म से सर झुक जाएगा. सरकारी विद्यालयों में शिक्षा प्राप्त करने आए बच्चों से अध्यापक अपने निजी काम करवाते हैं. गांवों में मुफ्त दुध-दही, घी, अनाज इत्यादी वसूलते हैं. इस परिस्थति में निजी विद्यालयों से सरकारी विद्यालयों का खर्चा ज्यादा मालूम पड़ता है.
देश में आज लाखों परिवार बिना छत के खुले आसमान तले सोने को मजबूर हैं. क्या भारत सरकार इस ओर भी ध्यान प्रदान करेगी. इसी आशा से आज भारत का हर गरीब सरकार की तरफ आंखें लगाए बैठा है.
हिंदी साहित्य के लिए पंजाबी के दूत
अर्जुन शर्मा
बरनाला (पंजाब) में वरिष्ठ साहित्यकार स्व. रामसरुप अणखी की पहली बरसी के अवसर पर आयोजित समारोह में उनकी रचनाओं का विमोचन करते वरिष्ठ साहित्याकर और अन्य
ख्यातिप्राप्त साहित्यकार रामसरूप अणखी अलग ही किस्म की शख्सियत थे। जमीन से जुड़ा साहित्य रचने के कायल इस पंजाबी लेखक की सादगी और फक्कड़ मिजाजी का असर उनके साथियों, प्रशंसकों और परिजनों पर बाखूबी पड़ा। इसीलिए तो उन्होंने स्वर्गीय अणखी की पहली बरसी भी कुछ उसी अंदाज में मनाई। इस मौके पर कोई धार्मिक-पारंपरिक श्रद्धांजलि सभा की बजाए उनके गृह-क्षेत्र बरनाला के शक्ति कला मंदिर में एक साहित्यिक समागम रखा गया।
जिसमें अणखी के अमूल्य साहित्यिक योगदान को याद करते हुए उनकी विरासत को सहेजने का संकल्प लिया गया। उनकी विलक्षण प्रतिभा का आंकलन करते हुए वक्ताओं ने लब्बोलुआब निकाला कि वाकई अणखी हिंदी साहित्य के लिए पंजाबी के दूत समान थे। यहां उल्लेखनीय है कि अणखी उन चुनिंदा पंजाबी लेखकों में शुमार हैं, जिनकी कई रचनाएं पाठकों के बीच इतनी लोकप्रिय हुई कि उनके हिंदी अनुवाद भी प्रकाशित करने पड़े।
इस साहित्यिक समारोह की अध्यक्षता संयुक्त रुप से नामवर लेखक-इतिहासविद् मनमोहन बावा, पंजाबी ट्रिब्यून के मुख्य संपादक वरिंदर वालिया, यूनिस्टार पब्लिकेशन्स चंडीगढ़ के हरीश जैन, प्रसिद्ध नाटककार-लेखक प्रो. अजमेर औलख और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के प्रो. अजय बसारिया ने की। इस दौरान अणखी की तीन चर्चित पुस्तकों का भी विमोचन किया गया। इनमें बलदेव बधान द्वारा संपादित और एनबीटी इंडिया द्वारा प्रकाशित ५९ कहानी के संग्रह च्रामसरुप अणखी दियां चौंणविया कहानियांज् के अलावा यूनिस्टार पब्लिकेशंस चंडीगढ़ द्वारा प्रकाशित उनका अंतिम व अधूरा उपन्यास पिंड दी मिट्टी और कुलदीप मान द्वारा संपादित उनके दोस्त व सह-लेखक को समर्पित अपनी मिट्टी दा रूख शामिल रहीं। यह रचनात्मक कार्य कर वास्तव में अणखी के सह-लेखकों, प्रशंसकों और परिजनों ने उनकी साहित्यिक विरासत को सहजने का व्यवहारिक-संकल्प लिया।
इस दौरान श्री बावा ने अपने संबोधन में जज्बाती होकर यादों के पन्ने पलटते हुए कहा कि अणखी जैसा साहित्यकार कोई बिरला ही होगा, उस शख्स ने हमेशा जमीन से जुड़े और नवोदित लेखकों को प्रोत्साहित किया। बावा की यह टिप्पणी वास्तव में सामायिक लगी, जब इस दौर में हर कथित वरिष्ठ लेखक अपने समकक्ष किसी को नहीं देखना चाहता है। उन्होंने खुलासा किया कि शायद अणखी ही मालवा से ताल्लुक रखने वाले पहले साहित्यकार होंगे, जो खुद तो संघर्ष के दौर में गुमनाम रहे, लेकिन नामवर हुए तो उन्होंने अपने इलाके के जमीनी-दर्द को कलम के जरिए साहित्यिक-पटल पर बाखूबी उकेरा। श्री वालिया तो इतने भावुक हुए कि उन्होंने यहां तक कह डाला कि कुल मिलाकर साहित्यिक-भाषा में अणखी और मालवा दोनों ही एक सिक्के के दो पहलू हैं। दरअसल मालवा के छोटे किसानों ने जो दिक्कतें उठाई, उनको अणखी ने ही बेहतर तरीके से समझा और कलम की जुबान से बाकायदा उनको एक उपन्यास की शक्ल दी। प्रो. औलख ने अपने तजुर्बे को बुनियाद बनाकर दोटूक कहा कि समाज को दिमाग में रखकर कलम चलाने वाले अणखी जैसे लेखक चुनिंदा ही हुए हैं। उन्होंने समाज के लिए साहित्य रचा, इसीलिए आज समाज में उनकी पहचान है।
डा. तेजवंत मान ने मालवा की विरासत को अपने जज्बातों में समेटते हुए बिना लाग-लपेट कहा कि अणखी अपनी रचनाओं में मलवाई भाषा को पूरी अहमियत देते थे और मलवाई भाषा हकीकत में पंजाबी साहित्य में अपना सम्मानजनक स्थान रखती है। यह अलग बात है कि मालवा की साहित्यिक विरासत की अहमियत को आम लोगों तक पहुंचाने का काम करने वाले अणखी सरीखे और लोग सामने नहीं आए। सीधी बात, इस साहित्यिक समारोह से चूंकि कोई राजनीतिक लाभ सीधे नहीं होने वाला था, लिहाजा यहां पर कोई सरकारी घोषणा और झूठे वादे नहीं किए गए। बहरहाल अणखी की साहित्यिक विरासत को आगे बढ़ाने के लिए संकल्प लेने वाले प्रो. कुलवंत सिंह, सुखमिंदर भट्ठल, हरीश जैन, प्रो. नव संगीत, डा. तारा सिंह, डा. सुरजीत सिंह, डा. बलकार सिंह, डा. जगीर जगतार, हरभजन बाजवा सहित तमाम साहित्यप्रेमी इस मौके पर मौजूद थे। इस समागम में अपने जज्बात तो बहुत लोग जाहिर करना चाहते थे, लेकिन कहीं तो समापन करना ही था। लिहाजा सबका आभार जताते हुए स्व. अणखी के बेटे डा. क्रांति पाल ने रस्मी तौर पर अगले साल फिर इसी तरह गर्मजोशी के साथ मिलने का वादा किया।
डा. तेजवंत मान ने मालवा की विरासत को अपने जज्बातों में समेटते हुए बिना लाग-लपेट कहा कि अणखी अपनी रचनाओं में मलवाई भाषा को पूरी अहमियत देते थे और मलवाई भाषा हकीकत में पंजाबी साहित्य में अपना सम्मानजनक स्थान रखती है। यह अलग बात है कि मालवा की साहित्यिक विरासत की अहमियत को आम लोगों तक पहुंचाने का काम करने वाले अणखी सरीखे और लोग सामने नहीं आए। सीधी बात, इस साहित्यिक समारोह से चूंकि कोई राजनीतिक लाभ सीधे नहीं होने वाला था, लिहाजा यहां पर कोई सरकारी घोषणा और झूठे वादे नहीं किए गए। बहरहाल अणखी की साहित्यिक विरासत को आगे बढ़ाने के लिए संकल्प लेने वाले प्रो. कुलवंत सिंह, सुखमिंदर भट्ठल, हरीश जैन, प्रो. नव संगीत, डा. तारा सिंह, डा. सुरजीत सिंह, डा. बलकार सिंह, डा. जगीर जगतार, हरभजन बाजवा सहित तमाम साहित्यप्रेमी इस मौके पर मौजूद थे। इस समागम में अपने जज्बात तो बहुत लोग जाहिर करना चाहते थे, लेकिन कहीं तो समापन करना ही था। लिहाजा सबका आभार जताते हुए स्व. अणखी के बेटे डा. क्रांति पाल ने रस्मी तौर पर अगले साल फिर इसी तरह गर्मजोशी के साथ मिलने का वादा किया।
इस समागम की सबसे बड़ी खासियत यही रही कि यहां पर कोई राजनीतिक घोषणा नहीं की गई, जो अर्से तक पूरी ना हो सके। अणखी के बेटे डा. क्रांति पाल ने सीधे तौर पर कहा कि पंजाबी यूनिवर्सिटी पटियाला में पंजाबी एमए में अव्वल आने वाले छात्र को रामसरूप अणखी अवार्ड दिया जाएगा। बेशक यह अवार्ड महज उस विजेता को ११ हजार रुपये का आर्थिक रुप से फायदा पहुंचाएगा, लेकिन साहित्यिक जगत में यह मालवा, पंजाब और देश के लिए एक गौरवपूर्ण सम्मान होगा। यहां उल्लेखनीय है कि स्व. अणखी ने पंजाब में बदहाली का शिकार छोटे किसानों-नशे की जकड़ में आती युवा पीढ़ी और आत्महत्या करते किसानों-नौजवानों को लेकर बड़ी शिद्दत से अपनी कलम चलाई। जिसका नतीजा यह है कि उनकी बरसी पर आज नामवर लोगों ने अपने श्रद्धासुमन अर्पित किए। मंच का संचालन कर रहे साहित्य-प्रेमी अमरदीप गिल ने भावुक होकर स्व. अणखी को श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए अंत में बस यही कहा कि अगर सौभागय से अगली बार इस अवसर पर मुझे मंच संचालन की जिम्मेदारी सौंपी गई तो यही मेरे लिए सबसे बड़ा पुरस्कार होगा।
सतरंगी किरणों की अटखेलियों वाला शहर 'दार्जिलिंग'
पश्चिम बंगाल के इकलौते पर्वतीय पर्यटन स्थल दार्जिलिंग की गिनती विश्व के सबसे खूबसूरत पर्वतीय पर्यटन स्थलों में की जाती है। अपने खूबसूरती के कारण ही इसे पहाडिय़ों की रानी कहा जाता है। दार्जिलिंग का नाम तिब्बती भाषा के दो शब्दों दोर्जी और लिंग को जोड़कर बना है। दोर्जे का मतलब होता है इंद्र का वज्र और लिंग का स्थान यानी वह स्थान जहां इंद्र का वज्र गिरा हो। इस शहर के आसपास देखने लायक कई मशहूर स्थान हैं।
टाइगर हिल
शहर से 13 किमी दूर 8482 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। टाइगर हिल सूर्योदय के अद्भुत नजारे के लिए पूरी दुनिया में मशहूर है। यहां कंचनजंगा की पहाडिय़ों के पीछे से सूर्योदय का सतरंगी नजारा देखने के लिए रोजाना देश-विदेश के हजारों पर्यटक जुटते हैं। यहां से मौसम साफ रहने पर विश्व की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट भी नजर आती है।
बतसिया लूप
यह इंजीनियरिंग का एक बेहतरीन नमूना है। सिलीगुड़ी से दार्जिलिंग के बीच चलने वाली ट्वाय ट्रेन यहां वृत्ताकार घूमती है और यात्रियों को 180 डिग्री के विस्तार में पहाडिय़ां नजर आती हैं। यह शहर से पांच किमी दूर है। यहां एक शहीद स्मारक भी बना है।
हिमालयन माउंटेनियरिंग इंस्टीटयूट
शहर में बने इस संस्थान में देश-विदेश के छात्र पर्वतारोहण का प्रशिक्षण लेने आते हैं। शहर के आस-पास की पहाडिय़ां पर्वतारोहण के लिए आदर्श हैं।
संजय गांधी जैविक उद्यान
इस उद्यान में रेड पांडा व ब्लैक बीयर समेत कई दुर्लभ प्रजाति के जानवर व पक्षी हैं। इसके अलावा लायड्स बोटेनिकल गार्डेन में तरह-तरह की वनस्पतियां देखी जा सकती हैं।
रंगीन वैली पैसेंजर रोपवे
शहर से तीन किमी दूर स्थित यह रोपवे देश का पहला यात्री रोपवे है। शहर के चौकबाजार से टैक्सी से यहां तक पहुंच कर रोपवे की सवारी का आनंद उठाया जा सकता है।
कैसे जाएं
दार्जिलिंग का सबसे नजदीकी एअरपोर्ट बागडोगरा में है जो कोलकाता, दिल्ली, गुवाहाटी व पटना से विमान सेवा से जुड़ा है। वहां से दार्जिलिंग (80 किमी) तक पहुंचने में लगभग तीन घंटे का समय लगता है। सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन सिलीगुड़ी के पास न्यू जलपाईगुड़ी है। वहां से भी तीन घंटे में दार्जिलिंग पहुंचा जा सकता है। दिल्ली, कोलकाता, मुंबई व देश के तमाम प्रमुख शहरों से यहां ट्रेनें आती हैं।
कब जाएं
दार्जिलिंग की सैर के लिए सबसे अच्छा सीजन है मार्च से मध्य जून और सितंबर से दिसंबर।
तापमान
गर्मी में 8 से 14 डिग्री व सर्दी में शून्य से छह डिग्री तक। यहां हिंदी, नेपाली, अंग्रेजी व तिब्बती भाषाएं बोली जाती हैं।
कहां हो प्याज देवता [व्यंग्य]
राजकुमार साहू
देश में अभी महंगाई चरम पर है और प्याज है कि लोगों के साथ-साथ सरकार को भी खून के आंसू रूला रहा है। जब से प्याज की दर में इजाफा हुआ है, तब से उसका दर्शन दुर्लभ हो गया है। पिछलों दिनों जहां देखो वहां, हर किराने की दुकान में प्याज मिल जाता था, मगर अभी हालात ऐसे हो गए हैं कि बाजार में प्याज कहीं मिल जाए तो उस व्यक्ति से बड़ा भाग्यशाली कोई नहीं। एक दिन पहले की बात है, मैं प्याज लेने के लिए दुकान गया, वहां प्याज नहीं मिलने से दूसरी दुकान की ओर कूच कर गया। मैं एक दुकान से दूसरी दुकान पहुंचा, इस तरह प्याज देवता को ढूंढते कई घंटे बीत गए और देखते ही देखते पूरा शहर घूम लिया।
इसी बीच मैं सोचने लगा कि महंगाई के इस दौर में प्याज की भी महिमा बढ़ गई है और वह भी किसी भगवान के सामान हो गया है। वैसे भगवान के दर्शन आसपास की गलियों के मंदिरों में रोजाना कहीं भी हो जा रहे हैं, लेकिन प्याज को करीब से देखे हफ्तों हो गया है। देश की जनता प्याज का नाम लेकर ही खुश है, क्योंकि उसकी कीमत के आगे किसी की कीमत कहां रह गई है। प्याज इन दिनों जिस तरह से लाल हुआ है, उसके बाद तो राजनीति क्षेत्र के एक धड़े में हरियाली छा गई है। विपक्षी पार्टियों के नेता सत्ता की चाहत में प्याज भगवान को याद किए बगैर भला कैसे रह सकते हैं, क्योंकि वे यह तो जानते हैं कि पहले भी प्याज, सरकार गिरा चुका है। तभी तो अब प्याज को खाने के बजाय उसकी पूजा की जा रही है। करे भी क्यों न, सत्ता की कहानी बड़ी निराली है, उसकी खुशबू के आगे कहां कोई टिक सकता है।
इस बार जब प्याज के दाम बढ़े तो अभी से ही जैसे सरकार की कुर्सी का पाया हिलने लगा है। अब सरकार के नुमाइंदे हैं कि प्याज देवता को खोजने निकल पड़े हैं और गोदाम को मंदिर बनाकर रखे जमाखोरों पर उनकी टेढ़ी नजर पड़ गई है। महंगाई की मार से चहुंओर हाहाकार मचा है और प्याज का जलवा बना हुआ है। प्याज भी खुश है कि कई बरसों में तो ऐसा मौका आता है, जब सरकार को उसके सामने नतमस्तक होना पड़ता है, नहीं तो मजाल है कि कोई सरकार को नतमस्तक कर पाए। देश में कितने भी बड़े से बड़े घोटाले व घपले हो जाएं, लेकिन सरकार को कैसे कोई डिगा सकता है। यही कारण है कि कई लोग प्याज के दर्शन लाभ लेकर उसे किसी भगवान से कम नहीं मान रहे हैं। यहां तो ठीक वैसा ही हो गया है, जैसे कोई व्यक्ति धनवान बन जाने के बाद खुद को भगवान से उपर समझने लगता है, यही हालात प्याज के भी हो गए हैं। है तो वह, महज छोटी सी खाने की चीज, मगर आज उसे हर कोई खोज रहा है और पूछ रहा है कि कहां हो प्याज देवता ? अब मैं भी सोचने लगा हूं कि प्याज देवता का एक मंदिर बनवा ही लूं।
इसी बीच मैं सोचने लगा कि महंगाई के इस दौर में प्याज की भी महिमा बढ़ गई है और वह भी किसी भगवान के सामान हो गया है। वैसे भगवान के दर्शन आसपास की गलियों के मंदिरों में रोजाना कहीं भी हो जा रहे हैं, लेकिन प्याज को करीब से देखे हफ्तों हो गया है। देश की जनता प्याज का नाम लेकर ही खुश है, क्योंकि उसकी कीमत के आगे किसी की कीमत कहां रह गई है। प्याज इन दिनों जिस तरह से लाल हुआ है, उसके बाद तो राजनीति क्षेत्र के एक धड़े में हरियाली छा गई है। विपक्षी पार्टियों के नेता सत्ता की चाहत में प्याज भगवान को याद किए बगैर भला कैसे रह सकते हैं, क्योंकि वे यह तो जानते हैं कि पहले भी प्याज, सरकार गिरा चुका है। तभी तो अब प्याज को खाने के बजाय उसकी पूजा की जा रही है। करे भी क्यों न, सत्ता की कहानी बड़ी निराली है, उसकी खुशबू के आगे कहां कोई टिक सकता है।
इस बार जब प्याज के दाम बढ़े तो अभी से ही जैसे सरकार की कुर्सी का पाया हिलने लगा है। अब सरकार के नुमाइंदे हैं कि प्याज देवता को खोजने निकल पड़े हैं और गोदाम को मंदिर बनाकर रखे जमाखोरों पर उनकी टेढ़ी नजर पड़ गई है। महंगाई की मार से चहुंओर हाहाकार मचा है और प्याज का जलवा बना हुआ है। प्याज भी खुश है कि कई बरसों में तो ऐसा मौका आता है, जब सरकार को उसके सामने नतमस्तक होना पड़ता है, नहीं तो मजाल है कि कोई सरकार को नतमस्तक कर पाए। देश में कितने भी बड़े से बड़े घोटाले व घपले हो जाएं, लेकिन सरकार को कैसे कोई डिगा सकता है। यही कारण है कि कई लोग प्याज के दर्शन लाभ लेकर उसे किसी भगवान से कम नहीं मान रहे हैं। यहां तो ठीक वैसा ही हो गया है, जैसे कोई व्यक्ति धनवान बन जाने के बाद खुद को भगवान से उपर समझने लगता है, यही हालात प्याज के भी हो गए हैं। है तो वह, महज छोटी सी खाने की चीज, मगर आज उसे हर कोई खोज रहा है और पूछ रहा है कि कहां हो प्याज देवता ? अब मैं भी सोचने लगा हूं कि प्याज देवता का एक मंदिर बनवा ही लूं।
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