डॉ वेदप्रताप वैदिक
मुझें दो बातों की बड़ी खुशी है. एक तो यह कि जातीय गणना के इरादे को देश सफ़ल चुनौती दे रहा है. जबसे संबल भारत ने मेरी जाति हिंदुस्तानी आंदोलन छेड़ा है, इसका समर्थन बढ़़ता ही चला जा रहा है. देश के वरिष्ठतम नेता, न्यायाधीश, विधिशास्त्री, विद्वान, पत्रकार, समाजसेवी और अन्य लोग भी इससे जुड़ते चले जा रहे हैं. इसमें सभी प्रांतों, भाषाओं, जातियों, धर्मों और धंधों के लोग हैं. ऐसा नहीं लगता कि यह मु_ीभर बुद्धिजीवियों का बुद्धि-विलास भर है.
दूसरी खुशी यह है कि जो लोग हमारे आंदोलन का विरोध कर रहे हैं, वे भी यह बात बराबर कह रहे हैं कि वे भी जात-पांत विरोधी हैं. वे जनगणना में जाति को इसीलिए जुड़वाना चाहते हैं कि इससे आगे जाकर जात-पांत खत्म हो जाएगी. कैसे खत्म हो जाएगी, यह बताने में वे असमर्थ हैं. जातीय जनगणना के पक्ष में जो तर्क वे देते हैं, वे इतने कमज़ोर हैं कि आप उनका जवाब न दें तो भी वे अपने आप ही गिर जाते हैं.
फिऱ भी उन सज्जनों के साहस की दाद देनी होगी कि वे जातिवाद की खुलेआम निंदा कर रहे हैं. जनगणना में जात को जोडऩा ऐसा ही है, जैसे बबूल का पेड़ बोना और उस पेड़ से आम खाने का इंतजार करना! हर व्यक्ति से जब आप उसकी जात पूछेंगे और उसे सरकारी दस्तावेजों में दर्ज करेंगे तो क्या वह अपनी जात हर जगह जताने के लिए मजबूर नहीं किया जाएगा? उसकी व्यक्तिश: पहचान तो दरी के नीचे सरक जाएगी और उसकी जातीय पहचान गद्दी पर जा बैठेगी.
क्या पाठशाला-प्रवेश, क्या नौकरी, क्या पदोन्नति, क्या यारी दोस्ती, क्या काम-धंधा, क्या राजनीति, क्या सामाजिक-जीवन सभी लोगों को क्या उनकी जात से नहीं पहचाना जाएगा और क्या वही उनके अस्तित्व का मुख्य आधार नहीं बन जाएगी? आज भी जात खत्म नहीं हुई है. वह है, लेकिन उसका दायरा शादी-ब्याह तक सिमट गया है. अब दफ्तर, रेल, अस्पताल या होटल में कोई किसी की जात नहीं पूछता. सब सबके हाथ का खाना खाते हैं और शहरों में अब शादी में भी जात के बंधन टूट रहे हैं.
यदि जनगणना में हम जात को मान्यता दे देंगे तो दैनंदिन जीवन में उसे अमान्य कैसे करेंगे? जनगणना में पहुंचकर वह घटेगी या बढ़ेगी. शादी के अलावा जात अगर कहीं जिंदा है तो वह राजनीति में है. जब राजनीतिक दलों और नेताओं के पास अपना कोई शानदार चरित्र नहीं होता, सिद्धांत नहीं होता, व्यक्तित्व नहीं होता, सेवा का इतिहास नहीं होता तो जात ही उनका बेड़ा पार करती है. जात मतदाताओं की बुद्धि हर लेती है. वे किसी भी मुद्दे का निर्णय उचित-अनुचित या शुभ-अशुभ के आधार पर नहीं, जात के आधार पर करते हैं.
जैसे भेड़-बकरियां झुंड में चलती हैं वैसे ही मतदाता भी झुंड-मनोवृत्ति से ग्रस्त हो जाते हैं. दूसरे अर्थों में राजनीतिक जातिवाद मनुष्यों को मवेशी बना देता है. क्या यह मवेशीवाद हमारे लोकतंत्र को जिंदा रहने देगा. जातिवाद ने भारतीय लोकतंत्र की जड़ें पहले से ही खोद रखी हैं. अब हमारे जातिवादी नेता जनगणना में जाति को घुसवाकर हमारे लोकतंत्र को बिल्कुल खोखला कर देंगे. जैसे हिटलर ने नस्लवाद का भूत जगाकर जर्मन जनतंत्र को खत्म कर दिया, वैसे ही हमारे जातिवादी नेता भारतीय लोकतंत्र को तहस-नहस कर देंगे.
नस्लें तो दो थीं, जातियां तो हजारों हैं. भारत अगर टूटेगा तो वह शीशे की तरह टूटेगा. उसके हजारों टुकड़े हो जाएंगे. वह ऊपर से एक दिखेगा लेकिन उसका राष्ट्रभाव नष्ट हो जाएगा. नागरिकों के सामने प्रश्न खड़ा होगा-राष्ट्र बड़ा कि जात बड़ी? यह कहनेवाले कितने होंगे कि राष्ट्र बड़ा है. दलितों और पिछड़ों के जातिवादी नेताओं को यह गलतफ़हमी है कि जातिवाद फ़ैलाकर वे बच निकलेंगे. वे क्यों भूल जाते हैं कि उनकी हरकतें जवाबी जातिवाद को जन्म देंगी? जनगणना के सवाल पर ही यह प्रक्रिया शुरु हो गई है.
कई सवर्ण नेताओं ने मुझे गुपचुप कहा कि जातीय गणना अवश्य होनी चाहिए, क्योंकि उससे बहुत से जाले साफ़ हो जायेंगे. सबसे पहले तो यह गलतफ़हमी दूर हो जायेगी कि देश में सवर्ण लोग सिफऱ् 15 प्रतिशत हैं. ताजातरीन राष्ट्रीय सेंपल सर्वे के अनुसार सवर्णों की संख्या लगभग 35 प्रतिशत है और पिछड़ी जातियों की 41 प्रतिशत! यदि इन जातियों में से मलाईदार परतों को अलग कर दिया जाये और वास्तविक गरीबों को गिना जाये तो उनकी संख्या शायद सवर्णों से भी कम निकले. ऐसी हालत में उन्हें अभी जो आरक्षण मिल रहा है, उसे घटाने की मुहिम चलाई जाएगी.
1931 की अंतिम जातीय गणना ने तथाकथित पिछड़ी जातियों की संख्या 52 प्रतिशत बताई थी. इसी आधार पर उन्हें 27 प्रतिशत आरक्षण मिल गया. तो क्या अब उसे घटाकर 20 या 22 प्रतिशत करना होगा? इसके अलावा जातीय जनगणना हुई तो आरक्षण प्राप्त जातियों में जबर्दस्त बंदरबांट शुरू हो जाएगी. सभी जातियों के अंदर उप-जातियां और अति-उपजातियां हैं. वे भी अपना हिस्सा मांगेंगी. जो नेता जातीय गणना की मांग कर रहे हैं, उनके छक्के छूट जाएंगे, क्योंकि प्रभावशाली खापों के विरुद्ध बगावत हो जाएगी. उनकी मुसीबत तब और भी बढ़ जाएगी, जब जाट और गुर्जर जैसी जातियां सारे भारत में आरक्षण के लिए खम ठोकने लगेंगी.
उच्चतम न्यायालय ने आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत बांध रखी है. इस 50 प्रतिशत को लूटने-खसोटने के लिए अब 500 से ज्यादा जातीय दावेदार खड़े हो जाएंगे. अगर जातीय गणना हो गई तो आरक्षण मजाक बनकर रह जाएगा. कौन नहीं चाहेगा कि उसे मुफ्त की मलाई मिल जाए? जातीय गणना निकृष्ट जातिवाद को पनपाएगी. जो वास्तव में गरीब हैं, उन्हें कोई नहीं पूछेगा लेकिन जिन जातियों के पास संख्या-बल और डंडा-बल है, वे मलाई पर हाथ साफ़ करेंगी.
इस लूट-खसोट में वे मुसलमान और ईसाई भी तत्पर होना चाहते हैं, जो जातीय-अभिशाप से बचने के लिए धर्मांतरित हुए थे. जो लोग जातीय गणना के पक्षधर हैं, उनसे कोई पूछे कि आप ओखर यह चाहते क्यों हैं? आप गरीबी हटाना चाहते हैं या जात जमाना चाहते हैं? यदि गरीबी हटाना चाहते हैं तो गरीबी के आंकड़े इक_े कीजिए. यदि गरीबी के आंकड़े इक_े करेंगे तो उसमें हर जात का गरीब आ जाएगा. कोई भी जात नहीं छूटेगी.
लेकिन सिफऱ् जात के आंकड़े इक_े करेंगे तो वे सब गरीब छूट जाएंगे, जिनकी जाति आरक्षित नहीं है. भारत में एक भी जात ऐसी नहीं है, जिसके सारे सदस्य गरीब हों या अमीर हों. जिन्हें हम पिछड़ा वर्ग कहते हैं, उनके लाखों-करोड़ों लोगों ने अपने पुश्तैनी काम-धंधे छोड़ दिए हैं. उनका वर्ग बदल गया है, फिऱ भी जात की वजह से हम उन्हें पिछड़ा मानने पर मजबूर किये जाते हैं. क्या आंबेडकर, अब्दुल कलाम, केआर नारायण, मायावती, मुलायम सिंह, लालू प्रसाद पिछड़े हैं? यह लोग अगड़ों से भी अगड़े हैं. क्या टाटा को कोई लुहार कहता है? क्या बाटा को कोई चमार कहता है? क्या कमोड बनानेवाली हिंदवेयर कंपनी को कोई भंगी कहता है? जातीय गणना चलाकर हम इतिहास के पहिए को पीछे की तरफ़ मोडऩा चाहते हैं.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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