Friday, November 26, 2010

बाल दिवस पर कई तरह के बचपन की बातें

अपने यंहा कई तरह के समाजों की तरह कई तरह के बचपन भी एक मुल्?क में एक ही समय पर पल बढ़ रहा है। बाल दिवस आया और ऐसा नहीं हुआ कि कई बच्?चों के चेहरे पर कोई खास मुस्?कराहट या कोई और भाव आया हो। बच्?चों का बचपन वाकई खोता जा रहा है। बड़ी और ऊंची इमारतों में रहने वाले मां बाप अपने बच्?चों को सिखाते हैं कि क्?या करें और कैसे रहें। इसमें गलत भी नहीं है लेकिन बच्?चों को जो पूछना हो जो बालसुलभ सवालात उनके जहन में आते हैं उनके जवाब देने के लिए कोई नहीं होता। मां काम करती है और पिता भी काम में मशगूल, अकेला बचपन या तो आया या क्रैश में अपने जैसे औरों के साथ समय को धकेलने की कोशिश करते करते एक दिन बड़ा हो जाता है। ऐसे में कई भावों का उसे कभी अहसास ही नहीं होता। उसे वे मूल्?य मिल ही नहीं पाते है जो मानव जीवन के लिए बेहद जरूरी हैं। अर्थ के शास्?त्र की मजबूरी ने मानव के सारे शास्?त्र बदल डाले हैं। सब को भागने की पड़ी है, समेटने की पड़ी है। बच्?चों का बचपन इसका सीधा शिकार हो रहा है। ये उन बच्?चों की बाते हैं जिनके पास सुविधाओं की कोई कमी नही है, बस रिश्?तों की कमी है। उनके अम्?मा दादा, बाबा, नाना नानी , कोई ऐसा नाम नहीं है जिसका साथ उनके नन्?हे बचपन के लिए आवश्?यक है। वे बढ़ तो रहे हैं लेकिन शायद रिश्?तों का अदब तहजीब उनसे दूर होता जा रहा है। आने वाले दिनों में शायद ये बच्?चे बचपन की बातों के किस्?से और कहानियां किताबों में ही पढ़ेंगे या फिल्?मों में ही देख सकेंगे। तब पता नही क्?या हालात होंगे। खुदा खैर करे।
उधर अपने मुल्?क में एक अलग किस्?म के बच्?चे भी हैं। बच्?चे तो बच्?चे हैं, कोई भेद उनमें नहीं होता, इसलिए उन मजबूरों की बात भी करनी आवश्?यक है जिनको इसका पता ही नहीं चल पाता कि बचपन वाकई होता क्?या है। इस भाव से उनकी मुलाकात शायद ही कभी होती हो। अलसुबह जब सभ्?य समाज के बच्?चे गर्म रजाइयों में सुंदर नींद का आनंद ले रहे होते हैं, वे बच्?चे सड़कों पर कचरा बीनते हैं, या रेलवे के प्?लेटफार्मों पर खाना ढूंढ रहे होते हैं,या फिर भीख मांग रहे होते हैं। ऐसे बच्?चे जिनका घर नहीं होता या अगर होता भी है तो महज समझौता होता है,क्?योंकि अगर उनके मां बाप उन्?हें ऐसे कामों पर नहीं भेजेंगे तो परिवार नहीं चल सकेगा। यहीं उनका बचपन है। भारी बोझ है उनके कमजोर कांधो पर। पर हिम्?मत देखों कि वे बेफिक्र जीते हैं और लड़ते हुए जिंदगी को आइना दिखाते हैं कि हमारे जज्?बे के आगे चुनौतियां क्?या हैं। लेकिन ऐसे बहुत कम ही हो पाते है। बहुत से ऐसे भी दिख जाएंगे जो सड़कों पर नशे में बेसुध चलते हैं। नाक पर मैला सा कपड़ा या रूमाल लगाए खतरनाक इंक रिमूवर सूंघते हुए या किसी और खतरनाक नशे के आगोश में। कैसा बचपन होगा कि जो सब गम भुला कर नशे में डूब जाना चाहता है। कौन से कारण हैं जो वे नशे के आदी हो जाते हैं। ये भी एक अलग कहानी है। और कुछ ऐसे बच्?चों के किस्?से भी हैं जिनमें दस साल की उम्र के बच्?चे हैं। जब उनके नटखटपने के दिन होने चाहिए, वे खतरनाक कामों में लगे होते हैं। कोई कांच की सुदंर रंग बिरंगी चूडिय़ा बनाने में तो कोई खतरनाक रासायनिक उद्योगों में , और बहुत से ऐसे भी हैं जो बड़े और समाज के कथित ऊंचे लोगों के घरों में बंधुआ की तरह काम करते हैं। बहुतेरे ऐसे भी हैं जो निठारी जेसे हादसों का शिकार होते हैं। कुछ बच्?चों की तस्?करी भी हो जाती है। सरकार और हाकिमों की नाक के नीचे अपने मुल्?क का एक बचपन बरबाद हो रहा है। कैसे कहें कि इन मासूमों को बाल दिवस की कोई खुशी हुई होगी। कुछ अखबारों में अगले दिन बाल दिवस के अवसर पर आकाओं और इनके नाम पर दुकानें चलाने वाली संस्?थाओं के कथित समाज सेवा जैसे कार्यक्रमों के फोटो होंगे। वे लोग इन बच्?चों का और अखबार की कतरनों का सदुपयोग विदेशी संस्?थाओं से अपने संस्?थानों के लिए इन बच्?चों के कल्?याण की योजनाओं के लिए मोटी अनुदान राशियां लेने के कामों में लाएंगे। खैर पता नहीं कभी इन बच्?चों को बचपन का पता चलेगा भी या नहीं।

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